Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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(ख) अन्तरात्मा
प्रथम, वह आध्यात्मिक रूप से जाग्रत आत्मा है। जिसने आठ प्रकार के मदों को त्याग दिया है और वह अपने आत्मा को ही अपना उपयुक्त आवास मानता है और बाह्य भौतिक आवासों को अप्राकृतिक
और कृत्रिम समझता है।" द्वितीय, उसने सभी संबंधों से और धन आदि वैभव से तादात्म्य समाप्त कर दिया है। तृतीय, आत्मा के जाग्रत होने से उसने अपने और संसार के प्रति अद्वितीय दृष्टिकोण विकसित किया है। उसका आत्मा ही ऐसा है जिसको मोक्ष का अधिकार प्राप्त हो गया है।'' वह ऐसी अन्तर्दृष्टि को प्राप्त कर लेता है जिसके फलस्वरूप वह बहिरात्मा की अवस्था में उपस्थित राग और द्वेष रूपी शत्रुओं पर प्रहार करके विजय प्राप्त कर लेता है। तीन प्रकार की अन्तरात्मा
आध्यात्मिक विकास के सोपानों को ध्यान में रखते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्तरात्मा के तीन प्रकार स्वीकार करती है:- (i) जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है, जो जिनेन्द्र भक्त है, जो आत्मनिन्दा करता है, जो गुणों को ग्रहण करने में तत्पर होता है, जो गुणीजनों
15. मोक्षपाहुड, 5.
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 194 16. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 194, आठ प्रकार के मद-(1) ज्ञान, (2) प्रतिष्ठा,
(3) कुल, (4) जाति, (5) बल, (6) ऋद्धि या विद्या, (7) तप और . (8) शरीर 17. समाधिशतक, 73 18. मोक्षपाहुड, 17 19. मोक्षपाहुड, 14, 87 20. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 194
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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