Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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करते हुए योगीन्दु, पूज्यपाद,' शुभचन्द्र और कार्तिकेय' आदि ने इस कथन का समर्थन किया है। यह बताना असंगत नहीं होगा कि लोकातीत आत्मा की अनुभूति से केवलज्ञान की सहज उत्पत्ति के कारण पूर्ण अस्तित्व जान लिया जाता है। आत्मानुभूति और दूसरे द्रव्यों का ज्ञान एक साथ होता है। प्रो. रानाडे के अनुसार "रहस्यवाद ईश्वर का प्रत्यक्ष, तात्कालिक, मौलिक और अन्तर्दृष्ट्यात्मक ज्ञान है।"
प्रो. रानाडे के द्वारा दी गयी परिभाषा रहस्यवाद की जैन धारणा के अनुरूप हो जाती है यदि 'ईश्वर' शब्द लोकातीत आत्मा के अर्थ में समझा जाता है। इस प्रकार रहस्यवाद कोरा चिंतन नहीं है किन्तु मौलिक, स्वभावगत अनुभव है। यह इन्द्रियगत जीवन से आत्मा के जीवन की ओर गमन है, जिसका अर्थ है अपने शाश्वत स्वभाव को प्राप्त करना। यह लोकातीत आत्मा की अनुभूति है। व्यक्तिगत आत्मा का सीमित गुणधर्म तिरोहित हो जाता है और शाश्वत आत्मा उदित होती है जिसको व्यक्ति अपना मूल स्वभाव मानता है। हम संक्षेप में कह सकते हैं कि रहस्यवाद की अनुभूति पूर्ण जीवन की पराकाष्ठा है जो निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से प्राप्त की जाती है। - रहस्यवाद की जो परिभाषा दी गयी है उसमें रहस्यवाद का उद्देश्य और प्राप्ति की प्रक्रिया दोनों सम्मिलित है। इस तरह रहस्यवाद के स्वरूप की अभिव्यक्ति साधक के आध्यात्मिक खोज का संक्षिप्तीकरण
6.. परमात्मप्रकाश, 1/12 7. समाधिशतक, 4, 27 8. ज्ञानार्णव, 32/10 9. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 192 10. Mysticism in Maharastra, Preface, P.1
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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