Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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तीन गुप्ति और पाँच समिति
अब हम गुप्ति और समिति का वर्णन करेंगे। मुनि के लिए आदर्श वस्तु यह है कि वह पूर्णरूप से मन-वचन और काय की क्रियाओं को संयमित करे और अपने आप को आत्मा के अनुभव में दृढ़ करे। ऐसे उदात्त और पवित्र प्रयास को 'गुप्ति' कहते हैं। दूसरे शब्दों में वह कारण जिसके जरिए आत्मा सांसारिक अवस्था से स्थायी सुरक्षा प्राप्त करता है और जन्म-मरण से परे जाने की शक्ति को अभिव्यक्त करता है वह ‘गुप्ति' कहलाती है। जो साधक ऐसा आरोहण करता है वह सुखरूप और दुःखरूप वस्तुओं से अपने आप को रोक लेता है और वह शान्त और शाश्वत आत्मा में रहता है। जब मुनि अपने आपको इस ऊँचाई पर आरोहण करने में असमर्थ पाता है तो वह पाँच समितियों का पालन करता है- अर्थात् (1) ईर्यासमिति, (2) भाषासमिति, (3) एषणासमिति, (4) आदाननिक्षेपणसमिति और (5) उत्सर्ग या प्रतिष्ठापनासमिति।
'गुप्ति' का अर्थ संदर्भ के परिवर्तन से बदल जाता है। उच्चतम आरोहण के दृष्टिकोण से इसका अर्थ है- मन-वचन और काय को गुण और दोषों से तथा शुभ और अशुभ क्रियाओं से हटाना, किन्तु शुभोपयोगी मुनि के दृष्टिकोण से इसका अर्थ है- केवल अशुभ क्रियाओं से मन-वचन और काय को हटाना। निश्चयनय के अनुसार .73. सर्वार्थसिद्धि, 9/2 74. तत्त्वार्थसार, 6/6
तत्त्वार्थसूत्र, 9/5 मूलाचार, 10, 301
मूलाचार, 334, 331 - भगवती आराधना, 1189
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्तं
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