Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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शरीर को कष्ट की आदत में रखना कायक्लेश है।166 इसका उद्देश्य है शारीरिक कष्टों को सहन करने का अभ्यास रखना और सुखों के प्रति आसक्ति को कम करना।167
हमने बाह्य तपों के स्वरूप की व्याख्या की है और हमने यह देखा है कि इन तपों को करने का उद्देश्य शारीरिक त्याग ही नहीं है किन्तु इन्द्रियों और शरीर के प्रति आसक्ति को नष्ट करना है। दूसरे शब्दों में बाह्य तपस्या उसी समय न्यायसंगत कही जा सकती है जब यह मुनि को आन्तरिक विकास की ओर ले जाये, वरना उसके अभाव में सारा प्रयास व्यर्थ ही चला जायेगा। मूलाचार का कथन है कि बाह्य तप से मानसिक अशान्ति उत्पन्न नहीं होनी चाहिए और नैतिक और आध्यात्मिक अनुशासन पालन के उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए लेकिन आध्यात्मिक धारणाओं को बढ़ावा मिलना चाहिए।168 यह व्याख्या बाह्य त्याग की आन्तरिक प्रवृत्ति को प्रकाशित करती है और केवल शारीरिक कष्ट देने की निन्दा करती है। समन्तभद्र का कथन है कि बाह्य तप आध्यात्मिक तपस्या को उत्पन्न करता है और इस तरह जैनधर्म तपों
166.मूलाचार, 356
सर्वार्थसिद्धि, 9/19 उत्तराध्ययन, 30/27 आचारसार, 6/19 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 448 षट्खण्डागम, भाग-13, पृष्ठ 58
भगवती आराधना, 222-227 167. सर्वार्थसिद्धि, 9/19 168. मूलाचार, 358
भगवती आराधना, 236
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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