Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 90
________________ (1) पृथक्त्ववितर्क- इसका संबंध पृथक्त्व, वितर्क और वीचार से होता है, अर्थात् अनेकता (पृथक्त्व), श्रुतवचन (वितर्क) और तीन योग और इनमें परिवर्तन (वीचार)। इसका अभिप्राय यह है कि एक द्रव्य से पर्याय पर या पर्याय से द्रव्य पर , एक वचन से दूसरे वचन पर और एक योग से दूसरे योग पर परिवर्तन का होना वीचार है।15 द्रव्य को छोड़कर पर्याय में और पर्याय को छोड़कर द्रव्य में परिवर्तन होना द्रव्य पर्याय परिवर्तन है। साधक एक श्रुतवचन का आलंबन लेकर दूसरे वचन का आलंबन लेता है और उसे भी त्यागकर अन्य वचन का आलंबन लेता है- यह वचनपरिवर्तन है। वह काययोग को छोड़कर दूसरे योग को स्वीकार करता है और दूसरे योग को छोड़कर वह काययोग को स्वीकार करता है- यह योगपरिवर्तन है। इस प्रकार के परिवर्तन को वीचार कहते हैं। इस कारण पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान को पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान भी कहते हैं। (2) एकत्ववितर्क- इसमें एक योग से दूसरे योग में परिवर्तन नहीं होता है। अनेकता एकता में बदल जाती है अर्थात् साधक एक द्रव्य, एक पर्याय, वचन पर किसी एक योग की सहायता से ध्यान करता है, कोई परिवर्तन नहीं होता है।216 इस कारण एकत्ववितर्क शुक्लध्यान को एकत्ववितर्कअवीचार शुक्लध्यान भी कहते हैं। इस तरह से पहला शुक्लध्यान सवितर्क (वचन-सहित) और सवीचार (परिवर्तन-सहित) होता है और दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क (वचनसहित) और अवीचार (परिवर्तन-रहित) होता है। इस प्रकार एकत्ववितर्क शुक्लध्यान के द्वारा जिसने कर्मरूपी ईंधन को जला दिया है उसके 215. तत्त्वार्थसूत्र, 9/44 216. ज्ञानार्णव, 52/29 Ethical Doctrines in Jainism Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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