Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02 Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain Publisher: Jain Vidya SamsthanPage 84
________________ सांसारिक जीवों में दुःख उत्पन्न कर सकती हैं फिर भी हमारी सीमित बुद्धि से उनको अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। अत: चार प्रकार के आर्तध्यान स्वीकार किये जाते हैं-188 अनिष्टसंयोगज, इष्टवियोगज, वेदनाजनित और निदानजनित (1) अनिष्टसंयोगज- अनिष्टकारी वस्तुओं का संयोग हो जाने पर उस अनिष्ट को दूर करने के लिए निरन्तर चिन्ता करना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है।189 (2) इष्टवियोगजइष्ट वस्तुओं का वियोग हो जाने पर उनकी प्राप्ति के लिए अनवरत चिन्ताग्रस्त होना इष्टवियोगज आर्तध्यान है। 90 (3) वेदनाजनितशरीर में रोग हो जाने पर उसको दूर करने के लिए निरन्तर चिन्तित रहना वेदनाजनित आर्तध्यान है।91 (4) निदानजनित- इष्ट सुखों को प्राप्त करने की इच्छा करना, दुश्मन को हराने की योजना बनाना और इन्द्रियजन्य भोगों को प्राप्त करने के लिए चिन्तन करते रहना निदानजनित आर्तध्यान है।192 आर्तध्यान संसारी जीवों में अनादिकाल से स्थित 188. ज्ञानार्णव, 25/37 तत्त्वार्थसूत्र, 9/30, 31, 32, 33 189. तत्त्वार्थसूत्र, 9/30 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 471 ज्ञानार्णव, 25/28 . 190. तत्त्वार्थसूत्र, 9/31 .. ज्ञानार्णव, 25/31 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 472 - 191. तत्त्वार्थसूत्र, 9/32 ज्ञानार्णव, 25/32 192. ज्ञानार्णव, 25/36 सर्वार्थसिद्धि, 9/33 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (49) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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