Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
View full book text
________________
दुष्ट, जुआरी, मद्यासक्त आदि का आना-जाना हो और वे स्थान भी जो दूसरे प्रकार से बाधा उत्पन्न करनेवाले हों। उसको उन स्थानों का चयन करना चाहिए जिनका संबंध तीर्थंकरों और मुनियों के नाम से संबंधित हो। साधक को नदी का किनारा, पर्वत का शिखर, गुफा और एकान्त में दूसरे स्थान ध्यान के लिए चुनने चाहिए। आसन के दृष्टिकोण से विशेषकर पद्मासन और खड़गासन उपयुक्त माने गए हैं। उसके लिए प्रत्येक आसन, प्रत्येक स्थान और प्रत्येक समय ध्यान के लिए उपयुक्त होता है जिसने मन को संयमित कर लिया है, जो अनासक्त है और धीर है,201 जो चेतन और अचेतन, सुखदायी और दुःखदायी विषयों से विचलित नहीं होता है। इसका परिणाम यह है उसकी इच्छाएँ समाप्त हो जाती है, अज्ञान लुप्त हो जाता है और चित्त शान्त हो जाता है। इस प्रकार मानसिक संतुलन ध्यान की पूर्व आवश्यकता है।
प्रशस्त ध्यान दो प्रकार का होता है- धर्मध्यान और शुक्लध्यान। सर्वप्रथम हम धर्मध्यान पर विचार करेंगे। धर्मध्यान
धर्मध्यान का अर्थ है- शुभ विचारणा या चिंतन।202 इसके चार भेद हैं- आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय।203 (1) आज्ञाविचय (आगमानुसार तत्त्व का चिंतन या समर्थन)“उपदेश देनेवाले का अभाव होने से, स्वयं के मन्दबुद्धि होने से, पदार्थों के सूक्ष्म होने से तथा तत्त्व के समर्थन में हेतु और दृष्टान्त का अभाव होने से सर्वज्ञ-प्रणीत आगम को प्रमाण करके ‘यही इसी प्रकार है'
201. ज्ञानार्णव, 6/6, 27/3 202. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 476 203. तत्त्वार्थसूत्र, 9/36
(52)
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org