Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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के अंतरंग पक्ष पर भी जोर देता है।169 बाह्य तपों को न्यायसंगत बताने के पश्चात् अब हम आन्तरिक तपों के स्वरूप पर विचार करेंगे। अंतरंग तप
अंतरंग तप भी छह प्रकार के होते हैं- अर्थात् (1) प्रायश्चित्त, (2) विनय, (3) वैयावृत्त्य, (4) स्वाध्याय, (5) व्युत्सर्ग और (6) ध्यान।170 (1) प्रायश्चित्त- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा मुनि अपने किये हुए दोषों से मुक्त होता है वह प्रायश्चित्त कहलाती है।11 कार्तिकेय के अनुसार वास्तविक प्रायश्चित्त वह है जिसमें किये गए दोषों की पुनरावृत्ति नहीं होती है चाहे शरीर को कितना ही कष्ट दिया जाए।172 (2) विनय- इन्द्रियों का संयम या कषायों का उन्मूलन या तीन रत्नों को प्राप्त व्यक्तियों के प्रति नम्रता का भाव होना विनय है।173 विनय के अभाव में आगम का अध्ययन व्यर्थ जाता है। विनय का बाह्य परिणाम
169. स्वयंभूस्तोत्र, 83 170. तत्त्वार्थसूत्र, 9/20
मूलाचार, 360 उत्तराध्ययन, 30/30
आचारसार, 6/21 ___171. सर्वार्थसिद्धि, 9/20
मूलाचार, 361
षट्खण्डागम, भाग-13, पृष्ठ 59 172. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 452 173. षट्खण्डागम, भाग-13, पृष्ठ 63
आचारसार, 6/69 अनगार धर्मामृत, 7/60 उत्तराध्ययन, 30/32
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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