Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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वचन, आत्मस्वरूप को समझानेवाले पवित्र ग्रंथ और आध्यात्मिकरूप से उन्नत आत्माओं के प्रति भक्ति और विनम्रता सम्मिलित है। मूलाचार के अनुसार अपरिग्रह महाव्रत के स्वरूप में चेतन और अचेतन परिग्रह का त्याग उपदिष्ट है और स्वीकृत परिग्रह के प्रति अनासक्ति का भाव भी। इस प्रकार एक मुनि शास्त्र (ज्ञानोपधि) मयूरपिच्छि (संयमोपधि) और पानी का बर्तन (कमंडलु-शौचोपधि) रख सकता है। जिस प्रकार शुद्धभाव के अभाव में भी मुनि सुशोभित होता है उसी प्रकार उपर्युक्त परिग्रह भी मुनि को सुशोभित करता है। पानी का बरतन शौचशुद्धि के लिए काम में लिया जाता है और मयूरपिच्छि जीवों की हिंसा से बचने के लिए। इस प्रकार की पिच्छि में पाँच गुण होते हैं। यह मिट्टी और पसीने से मलिन नहीं होती है, अहिंसक रहती है, मुलायम होती है और हल्की होती है। इस महाव्रत का उचित पालन उस समय : होता है जब मुनि पाँचों इन्द्रियों के सुखों के प्रति उदासीन हो जाता है।
68. प्रवचनसार, 3/25 69. मूलाचार, 9 70. मूलाचार, 14 71. भगवती आराधना, 98
मूलाचार, 910 72. आचारांग, पृष्ठ 209, 210
मूलाचार, 341 तत्त्वार्थसूत्र, 7/8 चारित्रपाहुड, 36 भगवती आराधना, 1211
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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