Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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को ही स्वीकार किया है। 12 अब हम षट् आवश्यकों के बारे में विचार करेंगे। (i) सामायिक
सामायिक का अर्थ है- जीवन और मरण में, हानि और लाभ में, प्रिय और अप्रिय घटना में, मित्र और शत्रु में, सुख और दुःख में मुनि द्वारा शान्त और निराकुल चित्त का बनाये रखना।।13 गृहस्थ के जीवन में ऐसा चित्त अस्थायी होता है किन्तु मुनि के जीवन में ऐसा चित्त स्थायी रूप से विद्यमान होता है। इस प्रकार मुनि के जीवन में सामायिक में समय की सीमा समाप्त हो जाती है। जो मुनि समता भाव से रहित है उसके लिए वन में रहना, शरीर का दमन करना, विभिन्न प्रकार के उपवास करना, स्वाध्याय करना और मौन रखना उपयोगी नहीं है।14 वह मुनि जो सभी पापों से रहित है, जो तीन गुप्ति का पालन करता है, जो इन्द्रियों में संयम रखता है, जो सभी प्राणियों में समभाव रखता है, जो आर्त और रौंद्रध्यान नहीं करता है, जो धर्म और शुक्लध्यान का अभ्यास करता है, जो हमेशा अपने को आसक्ति , दुःख, घृणा, भय
और कामासक्ति से दूर रखता है, वह दृढ़ समता भाव (सामायिक) को पालनेवाला कहा जाता है। (ii) स्तुति
स्तुति का अर्थ है- चौबीस तीर्थंकरों के दिव्य गुणों पर अपने 112. आचारसार, 1/35
- अनगार धर्मामृत, 8/17, 9/3 113. मूलाचार, 23 114. नियमसार, 124
115. नियमसार, 125, 126, 129, 131, 132, 133 ... . मूलाचार, 524, 525, 526, 529
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त . (31)
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