Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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रोग- अनेक रोगों से ग्रसित होने पर भी जो मुनि धैर्य से उनको सहता है और अपने आवश्यक अनुशासन को नहीं टालता है उसने रोग परीषह जीत लिया है। तृण-स्पर्श- जो मुनि काँटों आदि से परेशान नहीं होता है, जो निराकुल रहता है, जो सदैव चलने में, सोने में, बैठने में प्राणियों की अहिंसा में लगा रहता है वह तृण-स्पर्श परीषह को जीतनेवाला कहलाता है। मल- वह मुनि जिसके शरीर पर मिट्टी आदि मैल जमा हो गया है और यदि वह उसके द्वारा जरा सा भी मानसिक रूप से अशान्त नहीं होता किन्तु सदैव आत्मा के कर्म रूपी कीचड़ को सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी शुद्ध पानी से धोने में लगा रहता है उसने मल परीषह जीत लिया है। सत्कार-पुरस्कार- जो मुनि मनुष्यों के द्वारा दिये गये आदर से आकर्षित नहीं होता और अनादर से व्याकुल नहीं होता है उसने सत्कार-पुरस्कार परीषह जीत लिया है। प्रज्ञा- जो मुनि ज्ञान के अहंकार से प्रभावित नहीं होता है वह प्रज्ञा परीषह को जीतनेवाला होता है। अज्ञान- जो मुनि ज्ञान प्राप्त करने के लिए अथक परिश्रम करके भी सफल नहीं होता यदि वह निराशा में नहीं डूबता है तो उसने अज्ञान परीषह को जीत लिया है। अदर्शन- जिस मुनि को वर्षों तक तप करने के पश्चात् भी कोई लाभ नहीं होता तो भी उसकी श्रद्धा नहीं डिगती, वह अदर्शन परीषह को जीतनेवाला होता है। परीषह और तप में भेद
. . ' (1) परीषह मुनि की इच्छा के विरुद्ध उत्पन्न होते हैं जो उनको सहन करते हैं या आध्यात्मिक विजय के साधन के रूप में उनका उपयोग करते हैं, जब कि तप मुनि की इच्छा के अनुरूप आध्यात्मिक विकास के लिए किये जाते हैं। (2) साधारण दृष्टि से विचारें तो अधिकांश परीषह दुष्ट मनुष्यों, कठोर प्रकृति और ईर्ष्यालु देवताओं
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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