Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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चिन्तन को लगाना और उनके नाम का ध्यान करना । 116 भक्ति के वशीभूत होकर मुनि प्रायः 'जिनदेव' द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा करता है किन्तु यह केवल भक्तिमय भाषा ही है। चूँकि जिनदेव राग व द्वेष से परे हैं, अतः उनसे किसी वस्तु को प्राप्त करने की आशा नहीं की जानी चाहिए। 17 दिव्य आत्माओं ने हमें पवित्र उद्देश्य से उपकृत किया है, जिससे हमारे कर्म बंधन की कटुता नष्ट की...: जा सकती है। यद्यपि उन आत्माओं ने मानसिक द्वैत को पार कर लिया है फिर भी उनकी भक्ति हमारे उद्देश्यों को पूरा कर सकती है और हमारे एकत्रित कर्मों के मल को नष्ट करने में सक्षम है। 18 यह उदात्त राग है; और सांसारिक वस्तुओं की चाह के लिए नहीं है । 119 (iii) वंदना
वंदना अंतरंग विनय की सूचक है । उसका अर्थ होता है -- अरहंत और सिद्ध को प्रणाम करना और उनको भी, प्रणाम करना जो गुणात्मक जीवन में आगे बढ़ गये हैं, उदाहरणार्थ - तप - गुरु, श्रुत-गुरु, गुण-गुरु और दीक्षा- गुरु। 120 दूसरे शब्दों में, उन मुनियों को भी प्रणाम करना चाहिए जो स्वाध्याय और ध्यान में लगे हुए हैं, जो पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं और चरित्रहीनता की निन्दा करते हैं और गुणी व्यक्ति के गुणों का प्रसार करते हैं, जो आत्मसंयमी और धैर्यवान होते हैं । '
121
116. मूलाचार, 24
अनगार धर्मामृत, 8/37
117. मूलाचार, 567
118. मूलाचार, 569, 570, 571, 572
119. मूलाचार, 572
120. मूलाचार, 25
121. मूलाचार, 595, 596
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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