Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 71
________________ या सूखी घास पर सोना, 141 अदन्तधावन, खड़े होकर दिन में एक बार हथेली में आहार ग्रहण करना - ये अन्य मूलगुण हैं। 14 इस प्रकार मुनि अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा कर्मों को रोकने ( संवर) और विनाश करने (निर्जरा) में समर्पित करता है। परिणामस्वरूप वह परीषहों को जीतना और तपों को करना अपनी अनिवार्यताओं के क्षेत्र में स्वीकार करता है। मुनि उन चीजों से कोई समझौता नहीं करता जो उसको संसार रूपी कीचड़ में फँसा देती हैं। उसका जीवन संसार से पूर्ण विराग का होता है। कोई भी वस्तु जो धार्मिक जीवन से असंगत है और अधर्मी जीवन में साँस लेने के लिए बाध्य करती है उसको समाप्त किया जाना अनिवार्य है। यदि परीषह का सामना उचित दृष्टि से नहीं किया जायेगा तो मुनि जीवन विकृत हो जायेगा और यदि उनका सामना धैर्य, ध्यान और भक्तिपूर्वक किया जायेगा, तो जीत का आनन्द प्राप्त होगा । और यदि तपों को उत्साहपूर्वक किया जाता है तो इच्छा का निरोध हो जाता है और साधक आनन्द प्राप्त कर सकता है। परीषहों को जीतने से कर्मों का आगमन रुकता है 143 और तप के पालन से कर्मों का आगमन रुकने के साथ संचित कर्म भी नष्ट होते हैं। 144 हम सर्वप्रथम परीषह - जय पर विचार करेंगे। परीषह - उनकी गणना और व्याख्या मुनि के जीवन में आनेवाले कष्टों को परीषह कहा जाता है, इनको जीतना और इनसे विचलित न होना परीषह - जय कहा जाता 141. अनगार धर्मामृत, 9/91 टीका सहित बोधपाहुड, 56 142. मूलाचार, 31, 32, 33, 34, 35, 811 143. तत्त्वार्थसूत्र, 9/2 144. तत्त्वार्थसूत्र, 9/3 (36) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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