Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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लिए, आत्मसंयम और वैराग्य के विकास के लिए, अंत में, कषायों के उन्मूलन के फलस्वरूप शांति की अनुभूति के लिए प्रतिपादित की गयी हैं। मूलाचार के अनुसार ये अनुप्रेक्षाएँ वैराग्य उत्पन्न करती हैं और जो उनसे तादात्म्य स्थापित कर लेता है वह कर्म-बंधन के विच्छेद के फलस्वरूप मोक्ष प्राप्ति कर लेता है।' सामान्यतया ये अनुप्रेक्षाएँ साधक को सांसारिक संबंधों और लौकिक विचारों से ऊपर उठा देती हैं, फलस्वरूप ध्यान और मोक्ष के लिए साधक तैयार हो जाता है। प्रत्येक प्रेरक (अनुप्रेक्षा) का विवरण
अब हम प्रत्येक प्रेरक (अनुप्रेक्षा) के स्वरूप का वर्णन करेंगे
(i) सतत परिवर्तनशीलता या वस्तुओं की क्षणभंगुरता का प्रेरक (अनित्य-अनुप्रेक्षा)- प्रत्येक वस्तु परिवर्तन के अधीन है। जन्म मरण के साथ रहता है, यौवन बुढ़ापे के साथ सम्बद्ध होता है, धन
और वैभव किसी भी समय लुप्त हो सकते हैं और शरीर विभिन्न प्रकार के रोगों का शिकार हो सकता है। इस प्रकार वस्तुओं की अनित्य अवस्था हमारे सम्मुख खड़ी रहती है अर्थात् जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह अनिवार्य रूप से नष्ट होता है। निरन्तर परिवर्तनशील पर्यायों में आसक्ति कुमार्ग पर ले जाती है और जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को आच्छादित कर देती है। शरीर, प्रतिष्ठा, ऐन्द्रिक सुख और भोगोपभोग की वस्तुएँ जल में बुलबुले के समान या बर्फ के ढेर के समान या
6. ज्ञानार्णव, 2/5, 60 7. मूलाचार, 763, 764 8. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 5
ज्ञानार्णव, 2/10 .. 9. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 4
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त .
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