Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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है। मनुष्य के दुःखों का अस्तित्व बहुत स्पष्ट है। गर्भ का दुःख, माता-पिता-रहित बचपन, रोगी शरीर, गरीबी, झगड़ालु पति या पत्नी, उत्तरदायित्व-रहित पुत्र और पुत्री आदि के कारण मनुष्य अनगिनत दुःखों को भोगता है। इस प्रकार चारों गतियों के दुःख साधक के लिए प्रेरक बने रहते हैं जिससे वह शाश्वत रूप से दुःखों के पार जा सके।
(iv) एकाकीपन का प्रेरक (एकत्व-अनुप्रेक्षा)- जीव बिना किसी संग के शुभ और अशुभ क्रियाओं के परिणामों को भोगने के लिए अकेला होता है। मित्र और संबंधी कितने ही नजदीक और प्रिय हों फिर भी हमारे पूर्व कर्मों के दुःखों को भोगने में समर्थ नहीं होते हैं यद्यपि वे हमारे धन को भोगने में समर्थ हो सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अपने आश्रितों को अनैतिक कमाई से भोजन करा सकता है लेकिन फल भोगने के समय उसे अकेला ही दुःख भोगना पड़ेगा। जो व्यक्ति इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता है वह राग और द्वेष के बंधन से स्वयं को मुक्त कर लेता है।
(v) आत्मा और अनात्मा के बीच तात्त्विक भेद का प्रेरक (अन्यत्व-अनुप्रेक्षा)- आत्मा स्थायी रूप से शरीर से भिन्न है। 23. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 58-61 24. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 45, 46, 51, 52, 53 25. मूलाचार, 698, 699
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 74-76 26. ज्ञानार्णव, 2/2, 6
भगवती आराधना, 1748
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 77 27. ज्ञानार्णव, 2/5
भगवती आराधना, 1747
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__Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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