Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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यद्यपि सांसारिक रूप से वह शरीर से एक कही जाती है तो भी लोकातीत रूप से पूर्णतया इससे भिन्न होती है। शरीर इन्द्रियग्राह्य, अचेतन, अनित्य, आदि और अंत-सहित होता है जब कि आत्मा अतीन्द्रिय , चेतन, नित्य, अनादि और अनंत होता है। जब शरीर आत्मा के इतना नजदीक होते हुए भी पराया है तो आत्मा का संसार की दूसरी वस्तुओं से भिन्न होने की बात असंगत नहीं है। ऐसे आधारभूत भेद का अनुभव हमको जगत की बाहरी वस्तुओं से दूर हटा देगा और हमको आत्मा की गहराई में जाने के लिए दृढ़ करेगा।30
(vi) शरीर की अशुचिता का प्रेरक (अशुचि-अनुप्रेक्षा)शरीर वृद्धावस्था में जर्जरित हो जाता है और उसमें अनेक रोग संभव हैं। ऐसे शरीर के प्रति आसक्ति आत्मविकास में बाधा डालती है। शरीर की अशुचिता व्यक्ति के आत्मोत्थान की प्रेरक है। यह विरक्तता उत्पन्न करती है और फलस्वरूप व्यक्ति को आत्मकल्याण की ओर उन्मुख
करती है। .. (vii) विश्व की व्यवस्था का प्रेरक (लोक-अनुप्रेक्षा)
आकाश का वह भाग जिसमें जीव-अजीव स्थित हैं, लोक कहा जाता है और शेष अलोकाकाश कहा जाता है। यह विश्व अनादि है,
28. सर्वार्थसिद्धि, 9/7 29. मूलाचार, 702
सर्वार्थसिद्धि, 9/7 30. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 82 ___31. सर्वार्थसिद्धि, 9/7 — 32. ज्ञानार्णव, 2/1
मूलाचार, 713
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त .
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