Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02 Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain Publisher: Jain Vidya SamsthanPage 37
________________ के निषेध का पालन करना है। पूर्ण त्यागमय जीवन (मुनि-जीवन) अशुभ भावों के उन्मूलन को संभव बनाता है जो गृहस्थ के आंशिक त्याग की स्थिति में संभव नहीं होता है। मुनिधर्म क्रिया-जगत से पीछे हटना नहीं बल्कि हिंसा-जगत से पीछे हटना है। वास्तव में क्रिया त्यागी नहीं जाती है लेकिन क्रिया का लोकातीत स्वरूप सांसारिक स्वरूप का स्थान ले लेता है। मुनिधर्म का आचरण जो सम्यग्दर्शन सहित शुभ भावों से सम्बन्धित होता है, मन्द कषाय के रूप में आध्यात्मिक बाधाओं की उपस्थिति के कारण अहिंसा की पूर्ण अनुभूति को रोक देता है। निःसन्देह मुनि-जीवन इस अनुभूति के लिए पूर्ण भूमिका प्रदान करता है लेकिन इसका सम्पूर्ण अनुभव केवल रहस्यात्मक अनुभूति की परिपूर्णता में ही संभव होता है। साधक जिसमें अशुभ की समझ इस सीमा तक गहरी हो गई है कि वह स्वयं की निम्नकोटि की स्थिति के प्रति विद्रोह उत्पन्न करता है, फलस्वरूप वह शनैः-शनैः भोग और उपभोग की वस्तुओं को अंतिम सीमा तक त्याग देता है और इसके कारण वैराग्य (अनासक्ति ) की भावना का पोषण करता है और उच्च अवस्था में अपने मन को लगाने का प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में, उच्च जीवन के प्रति उत्साह के कारण ग्यारह प्रतिमाओं में प्रस्तावित आचरण का पालन करने के पश्चात् साधक ज्यों ही ग्यारहवीं प्रतिमा पार करता है, वह पूर्ण त्यागमय जीवन में प्रवेश करता है। निःसन्देह यह सत्य है कि प्रत्येक प्रतिमा पर आरोहण, बाह्य और आन्तरिक, उच्चानुशासन की तरफ होता है, लेकिन त्याग अपने को उसी समय पूरा व्यक्त करता है जब साधक आखिरी प्रतिमा में प्रस्तावित अनुशासन को पार कर लेता है। भोग और उपभोग की वस्तुओं का शनैः-शनैः त्याग करना या उच्च मार्ग पर चलना आध्यात्मिक प्रेरकों से प्राप्त प्रेरणा के कारण होता है। परम्परा के अनुसार ये प्रेरक बारह अनुप्रेक्षाएँ कही जाती (2) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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