Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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उनके प्रति पादटिप्पण में ऋण स्वीकार किया गया है। शब्दश: अनुवाद की अपेक्षा मूल स्रोतों का अनुवाद करने के लिए भाव का अधिक ध्यान रखा गया है।
प्रारम्भ में ही मैं गहरी कृतज्ञता के भाव को अभिव्यक्त करता हूँ स्व. मास्टर मोतीलालजी संघी, जयपुर (राजस्थान) के प्रति, जिन्होंने न केवल शब्दों से किन्तु अपने जीवन और चिन्तन के तरीके से मुझे दर्शन की ओर मोड़ा। आध्यात्मिक व्यक्तियों में मैं उन्हें उच्च श्रेणी का मानता हूँ। व्यक्तियों को जाति और मत के पक्षपात के बिना बदलने के तरीके के कारण और आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करने के कारण वे मुझे सुकरात की याद दिलाते हैं। पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ, प्राचार्य, जैन संस्कृत कॉलेज, जयपुर (राजस्थान) मेरे लिए सदैव प्रकाश और प्रेरणा के स्रोत बने रहे। उनका अगाध पाण्डित्य, गंभीर चिंतन और संत जैसा जीवन मेरे लिए मार्गदर्शक बना। उनके कारण ही मैं मूल स्रोतों के अध्ययन में लगा रहा और उनको वर्तमान रूप में प्रस्तुत कर सका। मेरे लिए वे दृढ़ता, धैर्य, साहस और अक्षुण्ण उत्साह के प्रतीक हैं। मैं उनका कितना ऋणी हूँ- यह मेरी अभिव्यक्ति से परे है।
मैं पूर्णरूप से कृतज्ञता स्वीकार करता हूँ मेरे सुपरवाइजर डॉ. वी. एच. दाते के प्रति, जिनके निर्देशन और स्नेही व्यवहार से वर्तमान कार्य कर सका। यहाँ मुझे यह उल्लेख करते हुए हिचकिचाहट नहीं है कि उनके कारण ही मैं मेरा स्नातकोत्तर अध्ययन पूरा कर सका और दर्शन में कई नयी बातें सीख सका जिनको केवल लम्बे व्यक्तिगत सम्पर्क के कारण ही सीखा जा सकता है। मैं उनके वात्सल्य को कभी नहीं भुला सकता। डॉ. ए. एन. उपाध्ये जो ग्रंथमाला के सामान्य संपादक है उनके प्रति मेरी
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