Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02 Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain Publisher: Jain Vidya SamsthanPage 31
________________ का समर्थन नहीं किया। परिणामस्वरूप उन्होंने जैनधर्म में गृहस्थआचार को उतनी ही स्पष्टता से विकसित किया जितनी स्पष्टता से मुनि-आचार विकसित किया गया। मुनिप्रवृत्ति से अभिभूत होकर जैनधर्म ने गृहस्थ-आचार की उपेक्षा नहीं की। अणुव्रतों के सिद्धान्त को विकसित करने के कारण जैनधर्म ने ऐसा मार्ग दिखा दिया है जिस पर गृहस्थ अपनी जीवन-यात्रा सफलतापूर्वक चला सकता है। अणुव्रतों का सिद्धान्त भारतीय चिन्तन को जैनधर्म का अद्वितीय योगदान द्वितीय, यह बताने का प्रयास किया गया है कि जैन तत्त्वमीमांसा जैन नीतिपरक सिद्धान्त के प्रतिपादन का आधार है। जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत तात्त्विक दृष्टि अनेकान्तवाद या अनिरपेक्षवाद के नाम से जानी जाती है। द्रव्य के स्वरूप को प्रकट करने के लिए जैन दार्शनिक निरपेक्ष दृष्टिकोण का अनुमोदन नहीं करते हैं। जैनदर्शन की दृढ़ धारणा है कि दर्शन में निरपेक्षवाद नैतिक चिन्तन का विनाशक है, क्योंकि निरपेक्षवाद सदैव चिन्तन की प्रागनुभविक प्रवृत्ति पर आधारित होता है जो अनुभव से बहुत दूर है। इस दृष्टि से समन्तभद्र का कथन महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार बंधन और मोक्ष, पुण्य और पाप की जो धारणा है वह अपनी प्रासंगिकता खो देती है यदि हम द्रव्य के स्वभाव के निर्माण में केवल नित्यता या अनित्यता को स्वीकार करते हैं। थोड़े से चिन्तन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि अहिंसा की धारणा जो जैन आचार के क्षेत्र से संबंधित है पदार्थों के तात्त्विक स्वभाव का तार्किक परिणाम है। तृतीय, यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि अध्यात्मवाद में जैन आचार की पराकाष्ठा है। इस प्रकार यदि आचार का मूल स्रोत तत्त्वमीमांसा है तो अध्यात्मवाद इसकी परिसमाप्ति है। आचारशास्त्र (XXX) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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