Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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(2) दूसरा प्रयोजन सभी प्राणियों के प्रति समानता का दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रेरित करता है और यह एक व्यक्ति और उसकी संपत्ति के प्रति भी पवित्र दृष्टिकोण उत्पन्न करता है।
यह आचार जैनधर्म में श्रेणीबद्ध रूप से वर्णित है। यह व्यक्ति के लिए प्रस्तावित करता है कि वह आचार का निष्कपट रूप से पालन करे।
इस आचार का आधार अहिंसा का सिद्धान्त है। यह व्यक्ति के स्वाभाविक अधिकार की स्वीकृति है, जिसको यह कहकर सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जीना चाहता है, कोई भी मरना नहीं चाहता। इसलिए दूसरे प्राणियों को नष्ट करने या नुकसान पहुँचाने का किसी को भी अधिकार नहीं है; उस रूप में विचार करने पर अहिंसा सुसंस्कृत और विवेकपूर्ण जीवन का मूलभूत नियम है और इस तरह यह जैनधर्म के समस्त नैतिक शिक्षण का आधार बन जाता है। “न किसी को मारना और न ही किसी को नुकसान पहुँचाना ऐसे आदेश का निर्धारण मानव के आध्यात्मिक इतिहास में महान घटना है।" यह बात ‘अलबर्ट स्वाइटजर' के द्वारा (Indian Thoughts and its Development London 1951, pp. 82-3) उचितरूप से कही गयी है। “जहाँ तक हमको ज्ञात है यह बात स्पष्ट रूप से प्रथम बार जैनधर्म में अभिव्यक्त की गयी है।"
जैन नीतिशास्त्री पूर्णरूप से इस बात से परिचित हैं कि ईमानदार और सुदृढ़ अहिंसावादी व्यक्ति को व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वे समझ चुके हैं कि जैनधर्म ने सचेतन प्राणियों को जैविक विज्ञान के अनुरूप श्रेणीबद्ध रूप से व्यवस्थित किया है। इसका उद्देश्य व्यक्ति को किसी भी उच्चश्रेणीवाले जीव को मारने और नुकसान पहुँचाने से परहेज करने के योग्य बनाना है और
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