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तरह यह काल का अन्तिम टुकड़ा है। स्थूल रूप से हम इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं कि हमारी आँखों के पलक के एक बार उठने या गिरने मात्र में असंख्य समय व्यतीत हो जाते हैं। 'समय' का उल्लेख जैनागम ग्रन्थों में इस प्रकार मिलता है कि 'पुद्गल' का शुद्ध-परमाणु आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जितने समय में पहुँचता है, उसे समय कहते है और आकाश के जितने क्षेत्र को पुद्गलपरमाणु रोकता है या घेरता है उतने क्षेत्र को 'प्रदेश' कहते हैं। परमाणु एक समय में ब्रह्माण्ड के अधो चरमान्त से ऊर्ध्व चरमान्त तक अथवा ऊपर से नीचे तक चला जाता है।
___ जैन शास्त्रों के अनुसार यह समग्र विश्व ऊपर से नीचे तक चौदह राजू है। एक राजू कितना विशाल होता है, इसका स्थूल उल्लेख कुछ उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इस प्रकार मिलता है:-कोई देव हजार मन के लौह गोलक को हाथ में उठाकर अनन्त आकाश में छोड़े और वह लौह गोलक छः महीने तक गिरता जाए इस अवधि में वह जितने आकाश देश का अवगाहन करता है, वह एक राजू है। ऐसे चौदह राजुओं का समस्त ब्रह्माण्ड है, अत: एक समय में इस छोर से उस छोर तक पहुँचने वाला परमाणु कितनी तीव्र गति करता है यह विचारणीय बात है।
जिस प्रकार परमाणु की उत्कृष्ट गति बताई गयी है उसी प्रकार उसकी अल्पतम गति का निर्देश भी शास्त्रों में मिलता है। कम से कम गति करता हुआ परमाणु एक समय में आकाश के एक प्रदेश से अपने निकटवर्ती दूसरे प्रदेश में जा सकता है। आकाश का एक प्रदेश उतना ही छोटा है जितना कि एक परमाणु। परमाणु की गति स्वतः भी होती है तथा अन्य पुद्गलों की प्ररेणा से भी। परमाणुपुद्गल अप्रतिघाती है। वह मोटी-से-मोटी लौह दीवार को अपने सहजभाव से पार कर जाता है, पर्वत उसे नहीं रोकते। यह वज्र के भी इस पार से उस पार निकल जाता है। कभी-कभी वह प्रतिहत भी होता है। ऐसी स्थिति में वह स्वयं भी प्रतिहत हो सकता है। तथा अपने प्रतिपक्षी परमाणु को भी प्रतिहत कर सकता है।
परमाणुओं का सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन-परमाणु की सबसे विलक्षण शक्ति तो यह है कि जिस आकाश प्रदेश को एक परमाणु ने घेर रखा है उसी आकाश प्रदेश में दूसरा परमाणु भी स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकता है। और उसी एक आकाश प्रदेश में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी ठहर जाता है। क्योंकि परमाणु के अत्यन्त सूक्ष्म होने से वह अपने निवास क्षेत्र में अन्य परमाणु को आने से नहीं रोकता इसलिए एक प्रदेश पर अनन्त परमाणु समा जाते हैं । सूक्ष्म रूप से परिणत हुए परमाणु
34 :: जैनदर्शन में नयवाद
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