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से 'घड़ा नहीं है।' जिस प्रकार घड़े में स्वचतुष्टय की अपेक्षा 'अस्तित्व' धर्म है उसी तरह घट व्यतिरिक्त पटादि पदार्थों का 'नास्तित्व' धर्म घड़े में न माना जाय तो घट और पटादि पदार्थ मिलकर एक हो जाएँगे। अतः घट 'स्यादस्ति' और 'स्यान्नास्ति' रूप है। इसी तरह वस्तु में द्रव्यदृष्टि से 'नित्यत्व' धर्म और पर्याय दृष्टि से 'अनित्यत्व' आदि अनेकों विरोधी धर्म-युगल रहते हैं।
3. 'स्यादवक्तव्यो घट:', 'घड़ा कथंचित् अवक्तव्य है'। जब विधि और निषेध दोनों की एक साथ विवक्षा होती है तब दोनों को एक साथ कहने वाला कोई शब्द न होने से घड़े को 'कथंचित् अवक्तव्य' कहा जाता है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है इन तीन मूल भंगों के मिलाने पर ही अधिक-से-अधिक सात अपुनरुक्त भंग हो सकते हैं। जब हम घड़े के अस्तित्व धर्म का विचार करते हैं तो अस्तित्वविषयक सात भंग हो सकते हैं। इनमें से पहला अस्तित्व, दूसरा तद्विरोधी नास्तित्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य, जो वस्तु के पूर्ण रूप की सूचना देता है कि वस्तु पूर्ण रूप से वचन के अगोचर या वचनातीत है। अवक्तव्य धर्म इस अपेक्षा से है कि दोनों धर्मों को युगपत् कहने वाला शब्द संसार में नहीं है। यतः वस्तु यथार्थतः वचनातीत (अवक्तव्य) है। अवक्तव्य के साथ 'स्यात्' पद के लगाने का भी अर्थ है कि वस्तु युगपत पूर्ण रूप में यदि अवक्तव्य है तो क्रमशः अपने पूर्ण रूप में वक्तव्य भी है। वह अस्ति-नास्ति आदि रूप में वचनों का विषय भी होती है। अतः वस्तु 'स्यादवक्तव्य' है। इन तीन भंगों से ही अपुनरुक्त भंग सात बनते हैं इसी प्रकार वस्तु के अनन्त धर्मों की अपेक्षा अनन्त सप्त भंगियाँ बन सकती हैं। उनमें कोई विरोध नहीं आता क्योंकि विरोध का परिहारक ‘स्यात्' पद प्रत्येक भंग के साथ जुड़ा हुआ होगा। इन स्पष्ट उदाहरणों से अनेकान्त विरोधियों के समस्त विरोध निर्मूल और निरस्त हो जाते हैं।
यदि ये अनेकान्त-विरोधी दार्शनिक जैनदर्शन की तत्त्व-समीक्षा निष्पक्ष और जिज्ञासु दृष्टि से करते तो सम्भवतः इन्हें जैनदर्शन के इन सिद्धान्तों पर इस प्रकार दूषित प्रहारों के करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। 'स्यात् पद का सापेक्ष दृष्टिकोण अर्थ करने पर ये सिद्धान्त पूर्णत: समीचीन और समन्वयवादी दृष्टिकोण वाले सिद्ध होते हैं।
यह तो सभी भारतीय तथा पाश्चात्य दार्शनिक और वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि जगत् का प्रत्येक पदार्थ, चाहे जड़ हो या चेतन-सजीव हो या निर्जीव, अपने-अपने स्वरूप को लिये हुए है। जो जैसा है, वैसा है। कोई भी पदार्थ अपने स्वरूप को छोड़कर पर रूप नहीं होता किन्तु जब इसका कथन किसी दूसरे रूप में करना पड़ता है तो वहाँ हमें किसी-न-किसी अपेक्षा या दृष्टिकोण को मानना
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 179
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