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आचार्य सिद्धसेन अभेद संकल्पी नैगम का संग्रह नय में और भेद संकल्पी नैगम का व्यवहार नय में अन्तर्भाव करके छह ही मूल नय मानते हैं ।
आचार्य यशोविजय गणी ने नय के मूल भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक मानकर द्रव्यार्थिक के नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन भेद तथा पर्यायार्थिक के ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये चार भेद माने हैं। 14
यही बात आचार्य विद्यानन्द ने कही है। 15 अन्य दिगम्बर आचार्यों की भी यही मान्यता है।
भट्ट अकलंकदेव" तथा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ” ने नैगमनय को अर्थनय मानकर ऋजुसूत्र पर्यन्त चार नयों का अर्थनय रूप से तथा शब्द आदि तीन नयों का शब्दनय रूप से विभाग किया है।
आचार्य वीरसेन स्वामी ने शब्द नय के स्थान पर व्यंजन नय नाम दिया है। 18 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण " ने एक-एक नय के सौ-सौ भेद करके विवक्षाभेद से नयों की पाँच सौ और सात सौ संख्या बतायी है । इन्होंने इसी गाथा नं. 2264 की टीका में विवक्षा भेद से छह सौ चार सौ तथा दो सौ संख्या भी नयों की निश्चित की है।
आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी आग्रायणी पूर्व के वर्णन में सात सौ नयों का उल्लेख किया है 120
इस प्रकार नयों के अनेक भेद-प्रभेद किये गये हैं । इन समस्त नय भेदों का मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकारों में विभक्त कर उनका अध्ययन किया जा सकता है—
प्रथम प्रकार
जैनागम-ग्रन्थों में यद्यपि नयों के अनेक भेदों का कथन किया गया है तथापि विचार व्यवहार की दृष्टि से प्रारम्भ में नय के तीन भेद किये गये हैं21 – ज्ञाननय, शब्दनय, और अर्थनय ।
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वस्तु को जानना ज्ञान का लक्षण है, इसलिए जितने प्रकार की वस्तु होती है, उतने ही प्रकार का ज्ञान भी होना चाहिए। जगत् में वस्तु तीन प्रकार की उपलब्ध होती है - ज्ञानात्मक, शब्दात्मक और अर्थात्मक |
ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध द्वारा वस्तु का ज्ञान में जो प्रतिबिम्ब या प्रतिभास पड़ता है उसे ज्ञानात्मक वस्तु कहते हैं ।
वाच्य-वाचक सम्बन्ध द्वारा वस्तु का शब्द में जो प्रतिभास पड़ता है उसे शब्दात्मक वस्तु कहते हैं ।
216 :: जैनदर्शन में नयवाद
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