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जाता है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा नैगमादि सात नयों का विवेचन धवलादि सिद्धान्तग्रन्थों में वस्तुस्वरूप की मीमांसा करने की दृष्टि से किया गया है जब कि निश्चय और व्यवहार नयों का कथन आचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि अध्यात्मग्रन्थों में संसारी जीव की अध्यात्म भावना को परिपुष्ट कर, हेय और उपादेय के विचार से मोक्षमार्ग में लगाने की दृष्टि से किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों की दृष्टि से भी विवेचन किया है किन्तु समयसार का तात्त्विक विवेचन निश्चय और व्यवहार नय से किया गया है। आगे इसी प्रवचनसार की 189 गाथा की टीका में आचार्य कुन्दकुन्द के भाष्यकार आचार्य अमृतचन्द्र ने निश्चयनय को शुद्ध द्रव्य का निरूपक और व्यवहारनय को अशुद्ध द्रव्य का निरूपक कहा है। छह द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश
और काल ये चार द्रव्य तो सदा शुद्ध ही रहते हैं। और जीव तथा पुद्गल ये दो द्रव्य शुद्ध तथा अशुद्ध दोनों प्रकार के होते हैं। जब तक जीव का परद्रव्य-पुद्गल तथा पुद्गलजन्य रागादि के साथ सम्बन्ध रहता है तब तक वह अशुद्ध कहलाता है और जब उसका सम्बन्ध छूट जाता है तब शुद्ध हो जाता है। जैसे-सिद्धात्मा या मुक्तात्मा। इसी प्रकार जीव के सम्बन्ध से जब तक पुद्गल में कर्मस्कन्ध रूप परिणमन रहता है तब तक वह अशुद्ध कहलाता है और जब उसका स्वाश्रित परिणमन होने लगता है तब शुद्ध कहलाता है अथवा पुद्गल का जो अणुरूप परिणमन है वह शुद्ध परिणमन है और द्वयणुक आदि स्कन्धरूप जो परिणमन है वह अशुद्ध परिणमन है। इस प्रकार से ये दोनों द्रव्य जैनदर्शन के अनुसार शुद्ध और अशुद्ध माने जाते हैं। अतः निश्चय और व्यवहारनय की उपयोगिता इन्हीं दोनों द्रव्यों के विवेचन में मुख्य रूप से है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तो वस्तु मात्र के विवेचन के लिए उपयोगी हैं, उनका मुख्य उद्देश्य वस्तुस्वरूप का विश्लेषण है। इसी से सिद्धान्तग्रन्थों में सर्वत्र उन्हीं का कथन मिलता है, किन्तु अध्यात्म का विश्लेषण आत्मपरक होने से आत्मा की शुद्धता और अशुद्धता के विवेचक निश्चय और व्यवहारनयों का विवेचन अध्यात्मग्रन्थों में मिलता है। एक बात यह भी है कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों को निश्चयनय के साधन में हेतु कहा है; क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के द्वारा वस्तुतत्त्व को जानने के बाद ही निश्चयदृष्टि से आत्मा के शुद्धस्वरूप को जानकर उसकी प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता है। अत: ये दोनों नय निश्चय के साधन में हेतु हैं। इससे इनको भी जानना आवश्यक है। इसीलिए अध्यात्म के महान् वेत्ता आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' और 'नियमसार' में आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मस्वरूप का विवेचन किया है। अतः
नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 251
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