Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 283
________________ 41. पंचाध्या., श्लो. 540 42. आ. प., सू. 224 43. अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो नयश्च भवति यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणाः संयोज्यन्ते बलादन्यत्र ।।-पंचााध्या., श्लो. 529 44. आ. प., सू. 222 45. पंचाध्या., श्लो. 534 46. अपि वा सद्भूतो यो नुपचरिताभ्यो नयः स भवति यथा। क्रोधा। जीवस्य हि विवक्षितश्चिदबुद्धिभवः।।-पंचाध्या. श्लो. 546 47. आ. प., सू. 228 48. द्रष्टव्यः इसी प्रबन्ध का नय प्रकरण, पृ. 126 49. पंचाध्या., श्लो. 549 50. आ. प., सू. 227 51. त. सू. सू. 7/15 52. इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम्। गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसंचाराः।। अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम्। खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम्।।-पु. सि., श्लो., 58-59 53. प्र. सा., त. दी. टीका., प्र. 326-333 54. जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया।।-गो. क., गा. 894 नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 281 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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