Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 287
________________ सिद्ध करता है। यह सभी प्रकार के विवादों और मतभेदों को समाप्त कर एक स्वस्थ परम्परा स्थापित करता है, जिससे इहलौकिक और पारलौकिक शान्तिलाभ होता है। __ वस्तुस्वरूप के विचार की विभिन्न दृष्टियाँ हैं। सब अपनी-अपनी दृष्टि से उस पर विचार करते हैं। द्रव्यदृष्टि वाला उसे नित्य कहता है। तो पर्यायदृष्टि वाला उसे अनित्य, अत: इन विभिन्न दृष्टियों का समन्वय होना आवश्यक है। इसके लिए जैनदर्शन में 'नयवाद' या 'सापेक्षवाद' का आविर्भाव हुआ, जो ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को बतलाता है। नयवाद कहता है, हम अपनी धारणाओं को जितना महत्त्व देते हैं, उतना ही दूसरे की धारणाओं को भी देना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी योग्यता होती है और अपना वातावरण। धारणाएँ भी तदनुसार बन जाती हैं और वह उन्हीं को लेकर अपने विचार प्रकट करता है। सत्य पर पहुँचने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति परस्पर विरोधी धारणाओं के खण्डन-मण्डन में न पड़कर उन परिस्थितियों पर ध्यान दे, जिन्हें लेकर वे अस्तित्व में आयी। एक ही पुरुष को एक स्त्री पुत्र के रूप में देखती है, दूसरी भाई के रूप में, तीसरी पिता के रूप में और चौथी पति के रूप में। यदि पुत्र कहने वाली पिता कहने वाली पर अथवा भाई कहने वाली या पति कहने वाली पर आक्षेप करे तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता है। यही बात दार्शनिक मान्यताओं की है। प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है और स्थायित्व भी है। बौद्धदर्शन ने परिर्वतन को वास्तविक कहा और स्थायित्व को मिथ्या। इसके विपरीत वेदान्त ने स्थायित्व को वास्तविक कहा और परिवर्तन की मिथ्या। प्रथम ने भेद को सत्य कहा और अभेद को मिथ्या। द्वितीय ने अभेद को सत्य और भेद को मिथ्या। जैनदर्शन कहता है कि विभिन्न दृष्टियों से स्थायित्व एवं परिवर्तन, अभेद एवं भेद दोनों सत्य हैं। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वस्तु स्थायी अथवा नित्य है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से वस्तु परिवर्तनशील अथवा अनित्य है। वैचारिक समता के इसी दृष्टिकोण को लेकर अनेकान्त' का विकास हुआ, जो जैनदर्शन का 'प्राण है। अनेकान्त की इस दृष्टि को लेकर 'नयवाद' अस्तित्व में आया जो वैचारिक समन्वय का ही दूसरा नाम है।। नयवाद कहता है कि वस्तु के अनन्त धर्मों और पर्यायों को अनन्त चक्षुओं से देखो। उन्हें किसी एक ही चक्षु से मत देखो। जो व्यक्ति वस्तु-सत्य को एक चक्षु से देखता है वह अपने सिद्धान्त का समर्थन और दूसरे की स्वीकृतियों का खण्डन करता है। अध्ययन का निष्कर्ष :: 285 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300