Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 286
________________ या तत्त्वाधिगम के उपाय हैं । इनके सम्यग्ज्ञान द्वारा तत्त्वोपलब्धि कर जहाँ हम आत्मशान्ति और परमानन्द अवस्था (मुक्ति) को प्राप्त कर सकते हैं, वहाँ अपने लौकिक जीवन को भी सुखी, शान्त और सन्तुलित बना सकते हैं। जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। जब कि अन्य सभी जैनेतर दर्शन एकान्तवादी हैं। वे वस्तु को एक धर्मात्मक ही मानते हैं, विरुद्ध उभयधर्मात्मक नहीं मानते हैं, किन्तु जैनदर्शन वस्तु को अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक मानता है। इसलिए उसका काम नय के बिना नहीं चल सकता । अतः जैनदर्शन अनेकान्तात्मक वस्तु का विश्लेषण नय से करता है। उसके अनुसार वस्तु अनेक धर्मवाली मानी गयी है। वह परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एकअनेक आदि अनेक धर्मस्वरूप है, अतः वह अनेकान्तात्मक कही जाती है। इस अनेकान्तात्मक वस्तु का प्रतिपादक होने से जैनदर्शन को अनेकान्तवादी दर्शन कहा है। वस्तु न सर्वथा सत् ही है, न सर्वथा असत् ही, न सर्वथा नित्य ही है, न सर्वथा अनित्य ही, न सर्वथा एक ही, न सर्वथा अनेक ही, किन्तु कथंचित् या किसी अपेक्षा से सत् है तो किसी अपेक्षा से असत्, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य। इस प्रकार परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले सत् असत् आदि धर्मों का तादात्म्यरूप ही वस्तु है। यह अनेकान्तात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है जैसा कि ऊपर कहा गया है, किन्तु वस्तु के इन विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों में से किसी एक धर्म की मुख्यता से वक्ता अपने अभिप्रायानुसार कथन करता है। जैसे देवदत्त व्यक्ति किसी का पिता और किसी का पुत्र है, किसी का मामा तो किसी का भानजा है । इसप्रकार अपने नाना सम्बन्धियों की अपेक्षा से वह नाना सम्बन्धों वाला है। अपने पुत्र की अपेक्षा से वह पिता है तो अपने पिता की अपेक्षा से वह पुत्र भी है। अपने भानजे की अपेक्षा से वह मामा है तो अपने मामा की अपेक्षा से वह भानजा भी है। इन सम्बन्धों के होने में कोई विरोध नहीं आता। इस तरह विवक्षा भेद से वस्तु के एक धर्म का कथन करता है वह नय है । विशेषता यह है जब नय वस्तु एक धर्म का कथन करता है तब वह वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध या निराकरण नहीं करता है। वस्तु का सापेक्षता से ही निरूपण करता है, इसी से नय सापेक्ष होने पर सम्यक् कहे जाते हैं। जो नय वस्तु का निरपेक्ष कथन करते हैं अर्थात् एक धर्म का कथन करते हुए अन्य धर्मों का निषेध करते हैं, वे मिथ्या कहे जाते हैं, अतएव वे वस्तु-स्वरूप साधक नहीं हो सकते हैं। इसप्रकार नयवाद सापेक्ष दृष्टिकोण से वस्तु - स्वरूप का विश्लेषण करता है । इसीलिए नयवाद को सापेक्षवाद भी कहते हैं। यह सापेक्षता का सिद्धान्त आध्यात्मिक और लौकिक दोनों प्रकार के पक्षों को 284 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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