Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 278
________________ व्यवहार शब्द आवे वहाँ यह विवेक करना अत्यावश्यक है कि यह व्यवहार उन चारों में से कौन-सा है? यदि यह विवेक नहीं रखा जाएगा तो अर्थ का अनर्थ हो . जाएगा और सब आगम-विरुद्धार्थक हो जाएगा। जैसे–'दूध' शब्द कहने से गाय, भैंस, बकरी के दूध का बोध होता है और 'आक' के पेड़ से निकले सफेद रस को भी दूध कहते हैं। अब यहाँ आक का दूध पीने से मरण हो जाता है' इसप्रकार आक के दूध का उदाहरण देकर सर्वथा यह कहना कि दूध प्राणघातक है तो क्या इस प्रकार के व्यवहार और श्रद्धा से हमारा जीवन चल सकेगा? नहीं किन्तु जो यह विवेक करेगा कि आक का दूध ही घातक है, गाय, भैंस आदि का दूध घातक नहीं होता है, बल्कि पोषक और बलवर्धक होता है। इस प्रकार के विवेक से ही हमारा जीवन व्यवहार सुव्यवस्थित चल सकता है। यही विवेकदृष्टि हमें व्यवहारनय के विषय में रखना है और वह इस प्रकार है-नैगमादि सात नयों में विवेचित व्यवहार नय अर्थनय है और उसमें भी द्रव्यार्थिकनय है। इस कारण यह व्यवहारनय अध्यात्म शास्त्रों में प्रयुक्त होने वाले निश्चय-व्यवहार वाले व्यवहारनय से भिन्न है। निश्चय-व्यवहार में प्रयुक्त व्यवहारनय व्यवहार अर्थात् भेद व उपचार (आरोप) से कथन वाला है और यह व्यवहार नय नामक द्रव्यार्थिकनय तत्त्वाधिगम कराने वाला है और वह भी द्रव्यार्थिकदृष्टि से। इस व्यवहारनय नामक द्रव्यार्थिकनय के द्वारा परिपूर्ण, अखण्ड, एक सत् अन्य सबसे विभक्त करके ज्ञात होता है। अध्यात्मशास्त्र में प्रयुक्तनय चार रूपों में उपलब्ध होते हैं(1) निश्चयनय (2) व्यवहारनय (3) व्यवहार (4) उपचार निश्चयनय-अभेद विधि से जानने वाले नय को निश्चयनय कहते हैं। व्यवहारनय-भेद विधि से जानने वाले नय को व्यवहारनय कहते हैं। व्यवहार-निश्चय और व्यवहारनय से जाने गये विषय के कथन को व्यवहार कहते हैं। उपचार-भिन्न-भिन्न द्रव्यों का परस्पर एक या दूसरे को कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध और अधिकरण या आधार आदि बताने को उपचार कहते हैं। इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि अध्यात्म में प्रयुक्त व्यवहारनय सिद्धान्त प्रयुक्त नैगमादिनयों वाले व्यवहारनय से पृथक् है। वैसे तो द्रव्यार्थिक नय और 276 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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