Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 280
________________ पुरुषों का ही मस्तक काट डालता है अर्थात् वे अज्ञानीजन इस नयचक्र का सही परिज्ञान न कर सकने के कारण एकान्त मिथ्या मार्ग का अनुसरण कर लेते हैं और संसार में ही भटकते रहते हैं, अतः आत्मकल्याण नहीं कर पाते हैं, पर जो इसकी प्रयोग विधि से परिचित हो जाते हैं, वे इस गहन नयचक्र महावन में प्रवेश करके भी उसमें भ्रान्त होकर चक्कर नहीं काटते और बड़ी सुगमता से बाहर निकल आते __उक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि वस्तु-स्वरूप के परिज्ञान के लिए नयों का सम्यग्ज्ञान आवश्यक है। नयों का सम्यग्ज्ञान किये बिना वस्तु-स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन हो ही नहीं सकता है। यदि नयों के सापेक्ष कथन द्वारा तत्त्व विवेचन किया जाएगा तो तत्त्वोपलब्धि हो सकती है। अन्यथा तत्त्व तत्त्व न रहकर अतत्त्वरूप हो जाएगा, मिथ्या हो जाएगा और उस मिथ्या तत्त्व का अनुसरण करने से जीव कभी भी आत्मकल्याण के मार्ग को प्राप्त नहीं कर सकेगा। सैद्धान्तिक नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा उनके भेद नैगमादि एवं अध्यात्मनय निश्चय और व्यवहार के विषय को बड़ी सूक्ष्मता से समझने की आवश्यकता है। इनकी प्रयोग विधि में थोड़ी सी भी असावधानी बड़े अनर्थ का कारण बन सकती है। जैनदर्शन के अनुसार इन सभी नयों के सर्वथा एकान्त पक्ष के कारण ही विभिन्न एकान्तवादी दर्शनों का आविर्भाव हुआ। दार्शनिक, साम्प्रदायिक, आध्यात्मिक और लौकिक विषयों को लेकर जब-जब, जितने भी विवाद और मतभेद हुए हैं उन सबका कारण इन नयों की सर्वथा एकान्तपक्षता अथवा अनेकान्त और स्याद्वाद की आश्रय विहीनता ही है। इन सभी विवादों, मतभेदों और तज्जन्य संघर्षों को समाप्त करने के लिए ही भगवान् महावीर ने अनेकान्त और उसके फलितवाद स्याद्वाद तथा नयवाद का उपदेश दिया था। अतः उक्त सभी विवादों और संघर्षों को समाप्त करने के लिए तथा तत्त्वनिर्णय एवं वस्तु स्वरूप के परिज्ञान के लिए उक्त नय कथन को ठीकठीक समझना आवश्यक है। इसी से तत्त्व निर्णय एवं वस्तु-स्वरूप की यथार्थ सिद्धि हो सकती है। यहाँ नयों के आध्यात्मिक विवेचन के प्रकरण में यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने 'प्रवचनसार' के परिशिष्ट भाग में 47 नयों का सूत्र रूप में विवेचन किया है। यह विवेचन आत्मस्वरूप प्रतिपादक नयों के रूप में किया है किन्तु वे नय उपरि विवेचित नयचक्र से सर्वथा भिन्न हैं। श्री कुन्दकुन्द आदि किसी भी आचार्य ने अपने ग्रन्थों में इनका उल्लेख तक नहीं किया है। वह तो केवल 278 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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