Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 269
________________ की इतनी स्पष्टता होने पर भी ऐकान्तिक निश्चय के व्यामोह में व्यवहार को सर्वथा छोड़ना एक बड़ी भूल है, पर इस विचार की भी अवहेलना नहीं की जा सकती कि व्यवहार के चक्र में फँसे रहकर निश्चय को छोड़ देना उससे भी बड़ी भूल है। निश्चय और व्यवहार दोनों एक ही सिक्के की दो पीठिकाएँ है । जिन्हें अनेकान्तात्मक दृष्टि के प्रकाश में परखना होगा; क्योंकि आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में, अनेकान्त के बिना नयों की स्थिति नहीं बन सकती अर्थात् अनेकान्तवाद को छोड़कर वस्तुस्वरूप के प्ररूपण करने का दूसरा कोई मार्ग नहीं है । अत: इन्हें वस्तुस्वरूप के अनुसार ग्रहण करना होगा । अनन्त जन्मों में अनन्त बार व्यवहार को पकड़ने का प्रयत्न किया, पर अपने मूल उपादान की ओर दृष्टिपात नहीं किया। पुरुषार्थ के यथार्थ स्वरूप को नहीं पहचाना। पुरुषार्थ की प्रबलता होने पर निमित्त सामग्री का साहाय्य प्राप्त होना स्वाभाविक है। कार्य की उत्पत्ति अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलने से होती है। अतः आत्मसाधना के लिए आवश्यक है कि आत्मा के विभाव द्वार को पार कर उसके स्वभाव के भव्यद्वार में प्रवेश किया जाए। इसी से विकल्प का विष आचार-विचार के ज्ञानामृत में परिवर्तित हो जाता है और रात की प्राप्ति होने लगती है। अशुद्ध से शुद्ध होने पर चेतन परमचेतन हो जाता है और कर्मबन्ध क्षीण होते हैं। ऐसी अवस्था में व्यवहार की हेयता की तो बात क्या निश्चय का विकल्प भी छूट जाता है; क्योंकि यदि आत्म-स्वभाव का विश्लेषण किया जाय तो वह नय पक्षातीत है, किन्तु कब ? जबकि शुद्धनय की प्राप्ति हो जाती है। तब ऐसा शुद्धजीव निर्विकल्पता तथा शुद्धानुभूति में निमग्न हो जाता है। वह इन दोनों नयों की भूमिका से ऊपर उठकर परमज्योतिस्वरूप शुद्धात्मतत्त्व की प्राप्ति की ओर बढ़ने लगता है। ऐसी शुद्धनयात्मक स्वानुभूति की अवस्था को आचार्य अमृतचन्द्र ने संकल्प - विकल्प से मुक्त शुद्धनय (निरूपाधि जीववस्तु स्वरूप) कहा है। इस स्वानुभूति के अभ्युदयकाल में अर्थात् शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा के अनुभवकाल में प्रमाण, नय, निक्षेप सब विलीन हो जाते हैं, कोई भेद नहीं रह जाता है। एक अद्वैत, अखण्ड चैतन्यपुंज अवशिष्ट रह जाता है। परमात्मतत्त्व के विचारकाल में ही प्रमाण, नय, निक्षेप की उपयोगिता है, किन्तु अनुभूतिकाल में तो प्रमाण, नय, निक्षेप से निरपेक्ष शुद्धात्मस्वरूप के दर्शन हो जाते हैं। पूर्ण निर्विकल्पक अवस्था हो जाती है। इसी को कैवल्य या परमानन्द अवस्था कहते हैं। संक्षिप्त निष्कर्ष यही है कि अध्यात्मनय निश्चय और व्यवहार के विषय में नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद - प्रभेद :: 267 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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