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पूर्ण सावधानी की आवश्यकता है। दोनों ही नय तत्त्व प्रतिपादन काल में अपेक्षित एवं तत्त्वानुभूति काल में उपेक्षित हो जाते हैं । जो प्रबुद्ध साधक अध्यात्मार्थी इस विवेक दृष्टि को सामने रखकर साधनामार्ग में प्रवृत्त होते हैं वे ही नयपक्षातीत, निरूपाधि आत्मतत्त्व स्वरूप शुद्धनय को प्राप्त करते हैं; क्योंकि आत्महित की साधना में व्यवहारनय को छोड़कर अन्तस्तत्त्व का अवलोकन करना होता है। अतः साधना के प्रसंग में व्यवहारनय हेय हो जाता है। पश्चात् शुद्धनयात्मक ज्ञानानुभूति के प्रसंग में निश्चयनय भी हेय हो जाता है, किन्तु वस्तुस्वरूप के परिचय के प्रसंग में न तो निश्चयनय हेय है और न व्यवहारनय हेय है। दोनों नय अपेक्षित हैं, दोनों ही कार्यकारी हैं। इसी विवेकपरक साधना से आत्मकल्याण हो सकता है।
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निश्चय और व्यवहारनय के भेद-प्रभेद
निश्चयनय के भेद - अभेदविधि से द्रव्य के विषय में जानना निश्चयनय है । निश्चयनय का विषय अभेद है। इसके दो प्रकार हैं। 32 शुद्धनिश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय ।
(1) शुद्धनिश्चयनय” – जो नय कर्मजनित विकार से रहित गुण और गुणी को अभेद रूप से ग्रहण करता है वह शुद्धनिश्चयनय है। जैसे- 'केवल ज्ञान स्वरूप जीव है' अर्थात् जीव केवल ज्ञानमयी है, क्योंकि ज्ञान जीव का स्वरूप 1 शुद्धनिश्चयनय का विषय शुद्धद्रव्य है । जीव और अजीव के शुद्ध स्वभाव का विवेचन करता है। शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा जीव के न बन्ध है, न मोक्ष है।
(2) अशुद्धनिश्चयनय” – जो नय कर्मजनित विकार सहित गुण और गुणी को अभेद रूप से ग्रहण करता है उसे अशुद्धनिश्चयनय कहते हैं । जैसेमतिज्ञानादिस्वरूप जीव है अथवा एक द्रव्य में अभेद विधि से अशुद्धपर्याय का ज्ञान होना अशुद्धनिश्चयनय है । जैसे जीव रागी है आदि अशुद्धपर्यायमय द्रव्य का परिचय होना । अशुद्धनिश्चयनय संसारी जीव को गुण और गुणी में अभेद दृष्टि से ग्रहण करता है; क्योंकि संसारी जीव कर्मजनित विकार सहित होता है । संसारी जीव में मतिज्ञान ज्ञान गुण की विकारी अवस्था है ।
इसी प्रकार निश्चयनय का एक भेद परमशुद्ध निश्चयनय भी है। अखण्ड परम स्वभाव का ज्ञान होना अखण्ड परम शुद्धनिश्चयनय है । जैसे- अखण्ड शाश्वत सहज चैतन्य स्वभावमात्र आत्मा का परिचय होना । शुद्ध द्रव्य स्वभाव का ज्ञान होना भी परम शुद्धनिश्चयनय है।
उक्त भेद-कथन का निष्कर्ष यह है कि शुद्धनिश्चयनय विवक्षितवस्तु को
268 :: जैनदर्शन में नयवाद
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