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सकता है। यह कहना कि जीव राग-द्वेषादि पुद्गल कर्मों का कर्ता है और उन्हीं का भोक्ता है, यह सब व्यवहार है। निश्चयनय से तो यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञान भावों का ही कर्ता और भोक्ता है। यही भाव आचार्य नेमिचन्द्र ने भी अभिव्यक्त किया है।
इसी प्रकार शुभ-अशुभ या पुण्य-पाप के विषय में भी निश्चय-व्यवहार की दृष्टि से विचार किया जा सकता है। दैनिक जीवन-व्यवहार के क्षेत्र में राग, द्वेष, क्रोधादि कषाय तथा हिंसादि क्रूरकर्मरूप अशुभ (पाप) भाव तो त्याज्य हैं ही, उसके लिए तो कोई स्थान है ही नहीं, पर जीव-दया आदि अहिंसा तथा, व्रत, नियम, संयम, भगवद्भक्ति आदि शुभ (पुण्य) भाव ग्रहण करने योग्य हैं।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि क्या अध्यात्म क्षेत्र में निश्चयदृष्टि से शुभभाव उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है या हेय (छोड़ने योग्य) है? इसका समाधान यह प्रस्तुत किया जा सकता है कि जब तक जीव शुद्धता या आत्मानुभव को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक उसके लिए शुभभाव रूप प्रर्वतना चाहिए। सिद्धान्ततः निश्चयदृष्टि वाला जीव भगवद्दर्शन, पूजन, व्रत, संयमादि शुभ भावों को करता हुआ भी उन्हें उपोदय नहीं मानता है। भवन के ऊपर जाने के लिए मनुष्य सीढ़ियों का उपयोग करता है, परन्तु सीढ़ियों की सुन्दरता देख उन्हीं में रम कर नहीं रह जाता, किन्तु उन्हें छोड़कर अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँच जाता है। इसी प्रकार मनुष्य दर्पण को देखता है। किसलिए देखता है? क्या इसलिए देखता है कि दर्पण बड़ा सुन्दर है ? उसका फ्रेम हीरा, पन्ना आदि रत्नों से जड़ा हुआ है ? नहीं, दर्पण इसलिए देखता है कि उसके माध्यम से अपने मुख को देखता है और उसको देखकर मुख पर लगी हुई कालिमा आदि को दूर करने का प्रयास करता है। विवेकी मनुष्य भगवान् के प्रतिबिम्ब के दर्शन इसलिए नहीं करता कि वह चाँदी, सोने, हीरा, पन्ना, जवाहरात का है, बड़ा सुन्दर लगता है, किन्तु इसलिए करता है कि उसके दर्शन के माध्यम से हमें अपने अन्दर भी विद्यमान वीतराग स्वरूप का दर्शन होता है। जिसने प्रतिमा के दर्शन कर अपने आपका, अपने वीतरागस्वरूप के दर्शन का उद्यम नहीं किया उसका दर्शन करना निष्फल है। इसी प्रकार दर्शन-पूजन आदि शुभोपयोग के कार्यों को निश्चय दृष्टि वाला करता है और बड़ी रुचि के साथ करता है, परन्तु श्रद्धा में उन्हें मोक्ष का साधक न होने से सर्वथा उपादेय नहीं मानता। अशुभ, शुभ और शुद्ध ये तीन प्रकार के भाव हैं। इनमें अशुभ (पाप) भाव तो हेय ही हैं इसे सब लोग मानते हैं, पर शुभ (पुण्य) भाव छोड़ने योग्य है या ग्रहण करने योग्य? इस विषय पर विवाद चलता है, पर विवाद की कोई बात ही नहीं है। पुण्य
264 :: जैनदर्शन में नयवाद
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