Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 264
________________ निश्चय का साधन होता है। ऐसा साधक ज्यों-ज्यों निश्चय की और बढ़ता जाता है त्यों-त्यों अशुद्ध परिणतिरूप भेदमूलक व्यवहार छूटता जाता है और ज्यों-ज्यों वह व्यवहार छूटता जाता है त्यों-त्यों साधक निश्चय की ओर बढ़ता जाता है। जो व्यवहार को अपनाकर उसी में रम जाता है वह साधक ही नहीं है। सच्चे साधक की दृष्टि से एक क्षण के लिए भी निश्चय नय का लक्ष्य ओझल नहीं होता। यहाँ यह सिद्धान्त भी नहीं भूलना चाहिए कि आखिर में यह व्यवहारनय हेय है, सर्वथा उपादेय नहीं है। और न ही सर्वथा हेय है, कथंचित् उपादेय है। इसीलिए व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा है। सर्वथा असत्यार्थ नहीं कहा है। यह भी सत्य के निकट पहुँचाने वाला है, किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ ' जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोग रूप व्यवहार मार्ग को भी छोड़ देगा। इसका परिणाम यह होगा कि वह शुद्धोपयोग (आत्मा की शुद्धदशा) तो प्राप्त हुआ ही. नहीं, उल्टा अशुभोपयोग (आत्मा की अत्यन्त अशुद्धदशा) में ही आकर भ्रष्ट होकर पतन के गर्त में पड़ जाएगा। इसलिए शुद्धनय का विषय जो साक्षात् शुद्धात्मा है उसकी प्राप्ति जब तक न हो जाय तब तक व्यवहारनय भी उपयोगी है, प्रयोजनवान् है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय व्यवहारीजन को समझाने के लिए उपयोगी है। जैसे-किसी म्लेच्छ पुरुष को म्लेच्छभाषा के बिना अपनी बात नहीं समझाई जा सकती वैसे ही व्यवहारीजन को व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश नहीं दिया जा सकता। इस पर टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने विश्लेषण किया है, 'जिस प्रकार किसी पुरुष को कोई ब्राह्मण 'स्वस्ति' कह कर आशीर्वाद दे तो वह कुछ भी नहीं समझता, केवल आँखें फाड़कर टकटकी लगाकर बड़े गौर से देखता रह जाता है कि यह क्या कह रहा है ? किन्तु जब वही बात उसकी म्लेच्छ भाषा में समझाई जाती है तो वह झट समझ जाता है और आनन्द विभोर हो जाता है। वैसे ही व्यवहारीजन 'आत्मा' कहने से कुछ भी नहीं समझते; क्योंकि उन्हें आत्मा के स्वरूप का कोई ज्ञान ही नहीं है, किन्तु जब व्यवहार मार्ग का अवलम्बन लेकर समझाया जाता है कि 'जिसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र है, वह आत्मा है', ऐसा कहने से झट समझ जाते हैं। जगत् के समस्त व्यवहारीजन म्लेच्छ के समान हैं और व्यवहारनय म्लेच्छभाषा के समान है। अत: व्यवहार के द्वारा ही शुद्धनयरूप परमार्थ को समझा जा सकता है। इसलिए परमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय का उपेदश किया जाता है। किन्तु ब्राह्मण को म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिए इसी 262 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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