Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 265
________________ वचन से व्यवहारनय अनुसरण योग्य नहीं है। व्यवहारनय के बिना परमार्थ का उपदेश नहीं दिया जा सकता, अत: उसका अवलम्बन लिया जाता है यद्यपि अपरमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय अभूतार्थ है तो भी उसके बिना परमार्थ का उपदेश नहीं हो सकता। जो अज्ञानी जीव हैं उन्हें ज्ञानी पुरुष आत्मद्रव्य में भेद करके समझाता है कि यह जो देखने-जानने वाला है, ज्ञान, दर्शन गुणवाला है, वह आत्मा है और वह दृश्यमान जड़ जगत् से सर्वथा भिन्न है। तब वे अज्ञानी जीव आत्मस्वरूप को समझकर उसमें प्रवृत्त होते हैं और परमार्थ को प्राप्त कर लेते हैं। अतः व्यवहारनय की यही उपयोगिता है। निश्चय और व्यवहार के विषय में यह ज्ञातव्य है कि इन दोनों नयों का विषय परस्पर सर्वथा विरुद्ध है। यहाँ तक कि ये दोनों '३६' के अंक के समान एक दूसरे के विपरीत हैं। इस विषय का सूक्ष्म विवेचन आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी पैनी दृष्टि से किया है। व्यवहार नय जिसे कहता है, निश्चय नय उसका निषेध करता है। निश्चय नय जिसे कहता है, व्यवहार नय उसमें भेद डालता है। व्यवहार नय कहता है कि जीव की बद्धदशा है, किन्तु निश्चयनय कहता है कि जीव तो स्वभाव से अबद्ध है। कहीं आकाश को भी कोई तलवार से चीर सकता है? जब आत्मा अमूर्तिक है तब मूर्तिक पुद्गल कर्मों के साथ उसका बन्ध कैसे हो सकता है? निश्चयनय की दृष्टि से जीव और शरीर कभी भी एक पदार्थ नहीं हो सकते, किन्तु व्यवहारनय जीव और शरीर की एकता प्रतिष्ठापित करता है। इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान, चारित्र-रूप परिणत यह आत्मा जानता है कि निश्चयनय से 'मैं एक हूँ', 'शुद्ध हूँ', दर्शन-ज्ञानमय हूँ, सदा अरूपी हूँ, परद्रव्य किंचित् मात्र यहाँ तक कि परमाणु मात्र भी मेरा नहीं हैं। मैं तो एक शाश्वत, शुद्धात्मा हूँ। शेष सब आत्म-भिन्न पर पदार्थ शुभाशुभ कर्मों के संयोग से प्राप्त हैं, अतः मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। निश्चयनय से जीव के वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, राग और द्वेष भी नहीं है। और जीव के ये सभी हैं, ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है। जैसे गाँव के किसी एक व्यक्ति को चोरी करते हुए देखकर व्यवहार से यह कह दिया जाता है कि यह गाँव तो चोर है, किन्तु निश्चय से विचार किया जाए तो गाँव चोर नहीं, किन्तु गाँव का वह व्यक्ति चोर है। इसी प्रकार जीव में शरीर के सम्बन्ध से रूप, रस, गन्ध का व्यवहार होता है। निश्चयनय से तो जीव शुद्धस्वरूप है, उसे सांसारिक केवल व्यवहारनय से ही कहा जाता है। इसी प्रकार कर्ता-कर्म के सम्बन्ध में भी इन दृष्टियों से विचार किया जा नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 263 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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