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नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद
नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण जैसा कि तुतीय अध्याय के प्रारम्भ में कहा गया है कि जैनागम ग्रन्थों में नयों का विवेचन दो दृष्टियों से किया गया है-एक सैद्धान्तिक दृष्टि से और दूसरा आध्यात्मिक दृष्टि से। सैद्धान्तिक दृष्टि का विवेचन पूर्व में किया जा चुका है, यहाँ नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण विवेचनीय है। यहाँ विशेष बात विचारणीय यह है कि सैद्धान्तिक और आध्यात्मिक नय कोई अलग-अलग नहीं हैं, सभी का वर्णन सिद्धान्त या आगम ग्रन्थों में किया गया है, अतः वे आगम नय ही हैं, किन्तु उनमें जो नय अपने भेद-प्रभेद सहित सिद्धान्त वर्णन में विशेष रूप से आते हैं उन्हें विद्वज्जन सिद्धान्तनय कहने लगे हैं। जैसे-द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिकनय और जो नय अध्यात्मवर्णन में विशेष रूप से आते हैं, उन्हें अध्यात्म नय कहने लगे हैं। जैसे-निश्चय और व्यवहारनय। आध्यात्मिक दृष्टि में केवल आत्मा अर्थात् जीवद्रव्य का कथन करना प्रमुख है। आत्मा का स्वभाव, उसके गुण, पर्याय, उनमें भेद-प्रभेद तथा उसका अन्य पदार्थों के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध आदि सब बातें बताना इसका काम है। आत्मा के लिए क्या कुछ हेय है और क्या कुछ उपादेय? इस बात का विवेक कराके उसकी शुद्धता व अशुद्धता आदि के विकल्पों का परिचय देना इस आध्यात्मिक दृष्टि में ही आता है। इसीलिए इस पद्धति में नयों के नाम भी केवल आत्मपदार्थ का तथा उसके लिए इष्ट व अनिष्ट बातों का आश्रय करके रखे गये हैं। जैसे निश्चय, व्यवहार, शुद्ध, अशुद्ध, सद्भूत, असद्भूत आदि।
जिस प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो मूलनय वस्तुस्वरूप के विवेचन के लिए माने गये हैं उसी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चय और व्यवहार इन दो नयों का विवेचन आत्मस्वरूप के परिज्ञान के लिए किया गया है; क्योंकि अध्यात्मग्रन्थों में इन दोनों का ही विवेचन प्रमुख रूप से पाया 250 :: जैनदर्शन में नयवाद
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