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स्वयं फूटकर बाहर निकलना निगम कहलाता है। अर्थात् शान्त व स्थिर ज्ञान में सहसा जो विकल्प उत्पन्न होता है, उसे निगम कहते हैं। उस निगम या विकल्प अथवा संकल्प में जो रहे या उससे उत्पन्न हो उसे नैगमनय कहते हैं। इस प्रकार नैगम नय संकल्प मात्र को ग्रहण करता है। यह संकल्प सत् पदार्थ सम्बन्धी भी हो सकता है और असत् पदार्थ सम्बन्धी भी। सत् पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान तो सर्व सम्मत है ही। जैसे कि मनुष्य तथा वृक्षादि सम्बन्धी ज्ञान, परन्तु असत् पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान भी असिद्ध नहीं है। भले ही आकाश पुष्प की माला की सत्ता लोक में न हो पर संकल्प ज्ञान उसको भी गूंथने में समर्थ है। भले ही गधे के सींग न होते हों पर ज्ञान में सींग वाले गधे की कल्पना होना भी सम्भव है। अर्थ नय तो केवल सत्ता भूत पदार्थ को ही जान सकता है, परन्तु ज्ञान या नैगमनय का व्यापार उपर्युक्त प्रकार से असत् पदार्थ में भी होता है।
उक्त संकल्पों को प्रमाणभूत और अप्रमाणभूत भी कहा जा सकता है। सत्ताधारी किसी पदार्थ के सम्बन्ध में होने वाला संकल्प प्रमाणभूत है, जैसे राजकुमार में राजापने का संकल्प अथवा राजभ्रष्ट व्यक्तियों में राजापने का संकल्प अथवा नाटक के किसी पात्र में राजापने का संकल्प अथवा खड़ाऊँ या राजमुद्रा आदि में राजा का संकल्प। असत् पदार्थ के सम्बन्ध में होने वाला संकल्प अप्रमाणभूत है जैसे-'बन्ध्या-पुत्र' के लिए 'आकाश-पुष्प' की माला गूंथने का संकल्प अथवा सींग वाले घोड़े पर सवारी करने का संकल्प अथवा स्वप्न की अनेकों ऊटपटांग बातों के सम्बन्ध में विचारने का संकल्प। भले ही काम करना अभी प्रारम्भ न किया हो पर चित्त में उसे करने का संकल्प मात्र प्रकट हो जाने पर वह कार्य जिस दृष्टि में निश्चित रूप से समाप्त होने के समान प्रतिभासित होने लगता है, वही नैगमनय है। जैसे अभी मेरठ नहीं गये पर मेरठ जाने का विचार करने पर 'मैं मेरठ जा रहा हूँ' ऐसा कहने का व्यवहार होता है। इस प्रकार संकल्प मात्र के द्वारा भूतकालीन वस्तु को अथवा भविष्यत् कालीन वस्तु को वर्तमानवत् देखा जा सकता है और इसी प्रकार अप्रमाणभूत काल्पनिक बातों को भी ज्ञान के विकल्प में सत् स्वरूपवत् देखा जा सकता है। इन प्रमाणभूत व अप्रमाणभूत दोनों प्रकार के विषयों को सत् स्वरूप देखना नैगमनय का लक्षण है। इसी प्रकार चावलों को नापकर लेती हुई स्त्री के पूछने पर कि तुम क्या कर रही हो? तो वह उत्तर देती है कि मैं भात बना रही हूँ। तथा कुल्हाड़ा लेकर जाते हुए व्यक्ति से पूछने पर कि तुम कहाँ जा रहे हो? तो वह उत्तर देता है कि मैं 'हल' लेने जा रहा हूँ। इनमें पहली का उत्तर तो चावलों की भविष्यकाल में उत्पन्न होने वाली भात रूप पर्याय की अपेक्षा से है और दूसरे
230 :: जैनदर्शन में नयवाद
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