Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 243
________________ शुद्ध ऋजुसूत्र नय प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले समस्त पदार्थों को विषय करता हुआ, अपने विषय से सादृश्य-सामान्य और तद्भावरूप सामान्य को दूर करने वाला सूक्ष्म-पर्याय प्रमाण सत्ता को ग्रहण करने के कारण इस नय का सूक्ष्म ऋजुसूत्र नाम सार्थक है; क्योंकि सूक्ष्म अर्थ पर्याय के एकत्व में अन्य किसी भी पर्याय का किसी प्रकार भी सम्मेल सम्भव नहीं; इसलिए इसे ही शुद्ध ऋजुसूत्र या परम पर्यायार्थिक नय भी कहते हैं। यही इस नय का कारण है। वर्तमान में जो मनुष्यादि पर्याय स्थूल दृष्टि से बदलती हुई दिखाई देती है वह वस्तुभूत नहीं है; क्योंकि स्वतन्त्र रूप से वह कोई पृथक् एक पर्याय नहीं है, बल्कि अनेकों सूक्ष्म अर्थ पर्यायों का एक पिण्ड है। वस्तुभूत तो वह सूक्ष्म अर्थ पर्याय है जो दृष्टि में नहीं आती, परन्तु इस स्थूल पर्याय की कारण है। यह बताना इस नय का प्रयोजन है। स्थूल ऋजुसूत्र नय4-जो अनेक समयों की वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है वह स्थूल ऋजुसूत्र नय कहलाता है। जैसे सौ वर्ष से कुछ अधिक मनुष्य पर्याय। यह नय अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण काल में वर्तमान अर्थात् जन्म से मरण पर्यन्त मनुष्यादि पर्यायों को उतने काल तक के लिए टिकने वाला एक स्वतन्त्र पदार्थ मानता है। एक समय मात्र काल में प्रमाण स्थायी वस्तु की पर्याय को जो स्वतन्त्र सत्ता के रूप में देखता है वह सूक्ष्म ऋजुसूत्र है। इसी प्रकार वर्ष आदि स्थूल काल प्रमाण स्थायी वस्तु की पर्याय को जो स्वतन्त्र सत्ता के रूप में देखता है वह स्थूल ऋजुसूत्र ... स्थूल समय को विषय करने के कारण इसका नाम स्थूल पर्यायार्थिक नय है। और वह स्थूल समय या व्यंजन पर्याय वर्तमान काल रूप या एक पर्याय स्वरूप : ग्रहण करने में आती है। इसलिए ऋजुसूत्र है। अतः 'स्थूल ऋजुसूत्र नय' ऐसा इसका नाम सार्थक है। इसी को अशुद्ध ऋजुसूत्रनय भी कहते हैं। ___ क्षणिक सूक्ष्म अर्थ पर्याय प्रमाण कोई भी सत् अप्रत्यक्ष होने के कारण व्यवहार कोटि में नहीं आ सकता। वह लोक में किसी भी अर्थ क्रिया की सिद्धि करता प्रतीत नहीं होता। अतः व्यंजन पर्याय प्रमाण ही पदार्थ को स्वीकार करना योग्य है। अतः स्थूल पदार्थों की एकता दर्शाकर लौकिक व्यवहार को सम्भव बनाना इस नय का प्रयोजन है। (5) शब्दनय और शब्दनयाभास-जो नय शब्द अर्थात् व्याकरण से नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 241 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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