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भुक्त, क्रियमाण कृत, बद्ध्यमान बद्ध, निष्पद्यमान निष्पन्न और सिद्धयत् सिद्ध आदि रूप है।
इस नय के अनुसार जिस समय प्रस्थ से धान्यादि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कहते हैं। वर्तमान में अतीत और अनागत धान्य का माप तो सम्भव नहीं है। इस नय की दृष्टि में कुम्भकार व्यवहार भी नहीं बन सकता; क्योंकि शिविक आदि पर्यायों के निर्माण तक तो उसे कुम्भकार कह नहीं सकते और घट पर्याय के समय अपने अवयवों से स्वयं ही घट बन जाता है तब उसे कुम्भकार कैसे कहा जाय ? सहकारी कारण निष्फल है; क्योंकि एक उपादान से ही कार्य की सिद्धि होती
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है । ठहरे हुए किसी पुरुष से यह प्रश्न भी नहीं हो सकता कि 'कहाँ से आ रहे हो' क्योंकि जिस समय प्रश्न किया गया उस समय आगमन रूप क्रिया नहीं पाई
है। ऋसून की दृष्टि में वह जितने आकाश देश में स्थित है वही उसका निवासस्थान है अथवा वह अपने जिस आत्मस्वरूप में स्थित है उसी में उसका निवास है । इस नय की दृष्टि से 'ग्रामनिवास', 'गृहनिवास', 'आश्रमनिवास' आदि व्यवहार नहीं बन सकता ।
इस नय की दृष्टि में ‘काक कृष्ण होता है' यह व्यवहार भी नहीं बन सकता; क्योंकि जो कृष्ण है वह कृष्णरूप ही है, काकरूप नहीं है । यदि कृष्ण को काक रूप माना जाय तो भ्रमर आदि को भी काक रूप मानना पड़ेगा। काक भी कृष्ण रूप नहीं है, काक भी काक रूप ही है; क्योंकि यदि काक को कृष्ण रूप माना जावे तो काक के पीले पित्त, सफेद हड्डी और लाल रुधिर आदि को भी कृष्ण रूप मानना पड़ेगा।
इस नय की दृष्टि में पलाल - दाह भी नहीं होता; क्योंकि अग्नि का जलना उसे धौंकना और जलाना आदि अनेक समय की क्रियाएँ वर्तमान क्षण में नहीं हो सकतीं। जिस समय दाह है उस समय पलाल नहीं और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं, तब पलाल दाह कैसा ? जो 'पलाल है वह जलता है' ऐसा भी नहीं कह सकते; क्योंकि बहुत-सा पलाल बिना जला हुआ पड़ा है।
. इस नय की दृष्टि से समानाधिकरण, बन्ध्य-बन्धक भाव, वध्य - घातकभाव, दाह्य-दाहकभाव, विशेषण - विशेष्यभाव, ग्राह्य-ग्राहक भाव, वाच्य - वाचक भाव आदि कुछ भी नहीं बनता, क्योंकि ये सब दो पदार्थों से सम्बन्ध रखते हैं, पर यह नय दो पदार्थों के सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करता । संयोग सम्बन्ध और समवाय सम्बन्ध भी इस नय में नहीं बनता; क्योंकि संयोग सम्बन्ध दो में और समवाय सम्बन्ध भी कथंचित् दो में होता है, पर जब इस नय का विषय दो नहीं है तो दो
नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 239
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