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होते हैं। अतः शास्त्रों में अनेक प्रकार से नय के भेद-प्रभेद दृष्टिगोचर होते हैं।
आचार्य सिद्धसेन तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने इस तरह के विवक्षा भेदों को दृष्टि में रखकर नयों के भेदों का वर्णन करते हुए लिखा है-संसार में जितने प्रकार के वचनमार्ग हैं उतने ही प्रकार के नयवाद हैं।
नयों की अनेक-भेदता का एक कारण यह भी है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है' और वस्तु के एक-एक धर्म का ग्राही नय है, अतः जितने वस्तु के धर्म हैं उतने ही नय हैं। इस प्रकार नयों की कोई निश्चित संख्या नहीं कही जा सकती है।
वैसे दिगम्बर परम्परा सम्मत आचार्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-इन दो मूलनयों की दृष्टि से वस्तु विवेचन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में निश्चय और व्यवहार नयों का प्रयोग भी इन्हीं दो मूलनयों के अर्थ में हुआ है।
इसी प्रकार सिद्धसेन दिवाकर आदि सभी आचार्यों ने भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक को मूल नय स्वीकार किया है। क्योंकि समस्त नयों के मूल आधार ये ही दो नय माने गये है। नैगमादि सात नय इन्हीं की शाखा-प्रशाखाएँ हैं। यही बात श्री माइल्ल धवल ने भी कही है-मूलनय दो ही हैं : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। अन्य असंख्यात और संख्यात नय इन्हीं दोनों नयों के भेद जानने चाहिए। ___ अनेकान्त का स्पष्टीकरण नयों के निरूपण से ही हो सकता है, नय अनेक हैं, परन्तु उन सबका समावेश संक्षेप में दो नयों में हो जाता है। वे मुख्य दो नय हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक।
आचार्य देवसेन ने द्रव्यार्थिक नय के दस भेद और पर्यायार्थिक नय के छह' .भेद किये है। इसी प्रकार इन्होंने नैगमादि सात नयों के साथ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक को मिलाकर कुल नौ नय माने हैं। इन्होंने उपनयों का भी निर्देश किया
___श्वेताम्बर परम्परा मान्य आचार्य उमास्वाति ने नय के पाँच भेद किये हैंनैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द।" इन्होंने आगे नैगम नय के दो भेद किये हैं-एकदेश परिक्षेपी और दूसरा सर्वपरिक्षेपी। इसी प्रकार शब्द नय के भी तीन भेद किये हैं-साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत।
दिगम्बर परम्परामान्य आचार्य उमास्वामी ने नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत-इसप्रकार सात नय माने हैं। इसी प्रकार अन्य समस्त दिगम्बर आचार्यों ने नय के सात भेद स्वीकार किये हैं।
नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 215
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