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जंजीर रूप पर्याय का उत्पाद हुआ; किन्तु स्वर्ण द्रव्य कड़े और जंजीर-दोनों अवस्थाओं में बना रहा, वह कहीं भी नहीं चला गया, उसकी सत्ता दोनों अवस्थाओं में है यही ध्रौव्यता है।
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील है और उसमें यह परिवर्तन प्रति समय होता रहता है। विशेषता यह है कि द्रव्य में इस प्रकार का परिवर्तन होने पर भी वह सदा अपने स्वरूप की अपेक्षा से बराबर विद्यमान रहता है। जैसे-दूध कुछ समय बाद दही रूप में परिणम जाता है और फिर दही का मट्ठा बना लिया जाता है। यहाँ यद्यपि दूध से दही और दही से मट्ठा ये तीन भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ दिखाई देती हैं पर हैं ये तीनों एक गोरस की ही। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में अवस्था भेद के होने पर भी उसका अन्वय पाया जाता है। इसलिए वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप सिद्ध होता है। प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की त्रिपुटी में वर्तमान हो रहा है। यह उसका सामान्य स्वभाव है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि एक ही द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप कैसे हो सकता है? कदाचित काल भेद से उसे उत्पाद, व्यय रूप मान भी लिया जाए; क्योंकि जिसका उत्पाद होता है उसका कालान्तर में नाश अवश्य होता है तथापि ऐसी अवस्था में वह ध्रौव्य रूप नहीं हो सकता है; क्योंकि जिसका उत्पाद और व्यय होता है उसे ध्रौव्य स्वभाव मानने में विरोध आता है?
इसका समाधान है कि अवस्था-भेद से द्रव्य में ये तीनों उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य माने गये हैं। जिस काल द्रव्य में पूर्व अवस्था नाश को प्राप्त होती है। उसी समय उसकी नयी अवस्था उत्पन्न होती है। फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वय स्वभाव बराबर बना रहता है। इसलिए प्रत्येक द्रव्य उक्त त्रिपदी युक्त है, त्रयात्मक है। द्रव्य की इस त्रयात्मकता को एक उदाहरण द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है-एक राजा के पास एक स्वर्ण घट है। राजकुमार उसे तुड़वाकर मुकुट बनवाना चाहता है और राजकुमारी को वह स्वर्ण कलश ही अत्यधिक प्रिय है; क्योंकि वह उसमें पानी भरकर उससे खेलती है; किन्तु राजा को स्वर्ण ही प्रिय है, चाहे वह कलश रूप में हो चाहे मुकुट रूप में। इस प्रकार एक कलश को लेकर तीनों व्यक्तियों के तीन प्रकार के मनोभाव हैं, जो निर्बाध हैं। __घट की इच्छुक राजकुमारी स्वर्ण की घट पर्याय का नाश होने पर दुःखी होती है, मुकुट का इच्छुक राजकुमार स्वर्ण की मुकुट पर्याय की उत्पत्ति होने पर हर्षित होता है और मात्र स्वर्ण का इच्छुक राजा घट-पर्याय का नाश और मुकुट पर्याय की उत्पत्ति होने पर न तो दुखी होता है और न हर्षित ही होता है; किन्तु मध्यस्थ रहता
206 :: जैनदर्शन में नयवाद
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