Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ भी अणु जगत से नष्ट नहीं हो सकता, भले ही वह एक स्कन्ध के हटकर दूसरे में जा मिले। इस प्रकार यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाद या परिणामवाद जगत् के कण- . कण में व्याप्त है। प्रतिक्षण इस परिणाम या परिणमन या परिवर्तन के होते हुए भी वस्तु में एकरूपता प्रवाहित रहती है। कोई भी वस्तु इस त्रिलक्षण स्वभाव का अतिक्रमण नहीं करती; क्योंकि सब पर स्याद्वाद, अनेकान्तवाद या नयवाद की छाप लगी हुई है। कोई भी वस्तु स्यावाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती, किन्तु जैनदर्शन की इस मान्यता को स्वीकार न करने वाले न्यायवैशेषिक आकाश आदि पदार्थों को केवल नित्य और दीपक आदि को केवल अनित्य ही स्वीकार करते जैनदर्शन के अनसुार प्रत्येक वस्तु का स्वभाव द्रव्य-पर्यायरूप है। उसमें प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य यह त्रिरूप पाया जाता है। जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य इस त्रिरूप से युक्त या तदात्मक है, वह सत् है और जो सत् है वही द्रव्य या वस्तु का लक्षण है। प्रत्येक वस्तु में दो अंश हैं, एक अंश ऐसा है जो तीनों कालों में शाश्वत है और दूसरा अंश सदा अशाश्वत है। शाश्वत अंश के कारण हर एक वस्तु ध्रौव्यात्मक (नित्य) है और अशाश्वत अंश के कारण उत्पाद-व्ययात्मक (अनित्य) है। इन दोनों में से किसी एक की ओर ही दृष्टि जाने से और दूसरे की ओर न जाने से वस्तु केवल नित्य या केवल अनित्य ही मालूम होती है; किन्तु दोनों अंशों की ओर दृष्टि देने से वस्तु का पूर्णरूप या यथार्थ स्वरूप मालूम किया जा सकता है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होना ही वस्तु मात्र का स्वरूप है, यही स्वरूप सत् कहलाता है। सत् स्वरूप नित्य है अर्थात् वह तीनों कालों में एक सा अवस्थित रहता है। ऐसा नहीं है कि किसी वस्तु मात्र में उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य कभी हों और कभी न हों। प्रत्येक समय में उत्पादादि तीनों अंश अवश्य होते हैं। यही सत् का नित्यत्व है। जैसा ऊपर भी कहा गया है, सत् का कभी विनाश नहीं होता और असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती। यह जैनदर्शन की द्रव्य या तत्त्व-व्यवस्था का मूल सिद्धान्त है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है-किसी भाव (सत्) का विनाश नहीं होता और अभाव (असत्) का उत्पाद नहीं होता। सभी भाव (सत्) अपने गुण और पर्यायों में उपजते और विनशते रहते हैं।' गीता में भी यही भाव अभिव्यक्त हैअसत् का कभी भाव (उत्पाद या उत्पत्ति) नहीं होता है और सत् का कभी 204 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300