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इस प्रकार ‘यह पार' इस पार भी है और उस पार भी है तथा वह पार भी इस पार भी है और उस पार भी है। एक ही व्यक्ति, एक ही साथ, एक ही समय में पिता भी है, पुत्र भी है, भाई भी है, भतीजा भी है, मामा भी है, भानजा भी है, श्वसुर भी है, जामाता भी है, छोटा भी है, बड़ा भी है। अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है । अपने भाई की अपेक्षा भाई है और अपने पिता के भाई की अपेक्षा भतीजा है। अपने भानजे की अपेक्षा मामा है और अपने मामा की अपेक्षा भानजा है। अपने जामाता की अपेक्षा श्वसुर है तो अपने श्वसुर की अपेक्षा जामाता है। अपने से बड़े की अपेक्षा छोटा है तो अपने से छोटे की अपेक्षा बड़ा
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इस तरह ये सब विरोधी प्रतीत होने वाले सम्बन्ध एक ही व्यक्ति में सम्बन्धी भेद से रहते हैं, इनमें कोई विरोध नहीं आता है। इसी तरह वस्तुधर्मों की भी व्यवस्था है। न कोई वस्तु सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत्, न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य, न सर्वथा एक है और न सर्वथा अनेक | किन्तु विवक्षा या अपेक्षा भेद से सत् भी है और असत् भी है, नित्य भी है और अनित्य भी है, एक भी है और अनेक भी। इस तरह अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक वस्तु की निर्विरोध सिद्धि होती है। वस्तु के अनेक धर्मात्मक होने पर भी ज्ञाता किसी एक धर्म की मुख्यता से ही वस्तु को ग्रहण करता है । जैसे - व्यक्ति में अनेक सम्बन्धों के होते हुए भी प्रत्येक सम्बन्धी अपनी दृष्टि से ही उसे पुकारता है। उसका पिता उसे पुत्र कहकर पुकारता है तो उसका पुत्र उसे पिता कहकर पुकारता है। किन्तु व्यक्ति न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही । यदि वह केवल पिता ही हो तो अपने पुत्र की तरह अपने पिता का भी पिता कहलाएगा या यदि वह केवल पुत्र ही हो तो अपने पिता की तरह अपने पुत्र का भी पुत्र कहलाएगा। अतः व्यक्ति पिता भी है और पुत्र भी है इसमें कोई विरोध नहीं । इसप्रकार पिता-पुत्र, मामा-भानजा, चाचा-भतीजा, श्वसुर - जामाता, छोटा-बड़ा आदि आपेक्षिक धर्मों की तरह एक ही द्रव्य में नित्यत्व-अनित्यत्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों के एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं आता है। वस्तु जिस प्रकार नित्य है उसी प्रकार अनित्य भी है। एक दृष्टि से नित्य है तो दूसरी दृष्टि से अनित्य।
वस्तु का वस्तुत्व दो बातों पर कायम है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप को अपनाये हुए है और अपने से भिन्न अनन्त वस्तुओं के स्वरूप को नहीं अपनाये हुए है। तभी उसका वस्तुत्व कायम है। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो वह वस्तु ही नहीं रहेगी। जैसे यदि घट अपने स्वरूप को न अपनाये तो वह गधे के सींग की
210 :: जैनदर्शन में नयवाद
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