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करते हुए कहा है
'जब सोने के एक प्याले को तोड़कर माला बनाई जाती है तब प्याला चाहने वाले को शोक होता है, माला चाहने वाले को हर्ष होता है और सोने का इच्छुक मध्यस्थ रहता है। इससे वस्तु के त्रयात्मक होने की सूचना मिलती है। उत्पाद, स्थिति और व्यय के अभाव में तीन प्रकार की बुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि प्याले का नाश हुए बिना शोक नहीं हो सकता, माला की उत्पत्ति हुए बिना हर्ष नहीं हो सकता और सोने के स्थायित्व के बिना माध्यस्थ भाव नहीं हो सकता। अत: वस्तु सामान्य से नित्य है।
.. ये दोनों उल्लेख यद्यपि सामान्यतः जैनदर्शन के अनुकूल प्रतीत होते हैं, पर इनमें जैनदर्शन से मौलिक अन्तर है। ये मुख्यतः नैयायिक दर्शन के दृष्टिकोण को ही स्पष्ट करते हैं। नैयायिक दर्शन का मन्तव्य है कि कारण द्रव्य सर्वथा नित्य है
और कार्य द्रव्य सर्वथा अनित्य। इन दोनों उल्लेखों का भी यही भाव प्रतीत होता है। महर्षि पतंजलि तो द्रव्य की नित्यता और पर्याय की अनित्यता स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं; किन्तु जैनदर्शन का दृष्टिकोण किसी एक को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मानने का नहीं है। दृष्टि भेद से वही द्रव्य नित्य है और वही अनित्य
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये द्रव्य की अवस्था में हैं। द्रव्य इनमें व्याप्त कर स्थित है। इसलिए द्रव्य कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है। दृष्टि या अपेक्षा भेद से द्रव्य में एक साथ ही एक ही समय में नित्यानित्यात्मकता पाई जाती है। इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
जैनेतर दार्शनिकों को यह शंका बराबर बनी रहती है कि जैनदर्शन की नित्यानित्यात्मकता एक ही समय में कैसे बन सकती है? ये दोनों परस्पर-विरोधी धर्म एक ही द्रव्य में एक ही साथ, एक ही समय में कैसे रह सकते हैं?
इसका बहुत ही सुन्दर सयुक्तिक समाधान आचार्य उमास्वामी ने किया है
अर्पित (विवक्षित) या मुख्यता और अनर्पित (अविवक्षित) या गौणता की अपेक्षा से एक वस्तु में एक ही साथ, एक ही समय में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दो धर्मों की सिद्धि बराबर हो जाती है। इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
उक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि मुख्य और गौण की विवक्षा भेद से एक ही वस्तु में नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्म रहते हैं। वस्तु अनेक धर्मात्मक है, अतः उसमें मुख्य और गौण रूप से नाना धर्म एक साथ रह सकते हैं, उनमें एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं आता है और वस्तु स्वरूप की सिद्धि हो जाती
208 :: जैनदर्शन में नयवाद
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