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का उत्पाद होता है तथा दोनों अवस्थाओं में द्रव्य रूप दीपक विद्यमान रहता हैं। इसलिए द्रव्य या स्वस्वरूप की अपेक्षा दीपक नित्य है और पर्याय या परिवर्तित अवस्थाओं की अपेक्षा अनित्य है । इसी प्रकार आकाश भी नित्यानित्य स्वरूप है; क्योंकि जिस समय आकाश में रहने वाले जीव- पुद्गल आकाश के एक प्रदेश को छोड़कर दूसरे प्रदेश के साथ संयुक्त होते हैं उस समय आकाश में पूर्व प्रदेशों से जीव- पुद्गलों के विभाग या अलग होने की अपेक्षा से आकाश में व्यय और उत्तर प्रदेशों के साथ संयोग होने से उत्पाद तथा पूर्वोत्तर दोनों पर्यायों में आकाश द्रव्य के विद्यमान रहने से ध्रौव्य अवस्था पाई जाती है। इसलिए द्रव्य या स्व स्वरूप की अपेक्षा से आकाश नित्य है और पर्याय या परिवर्तित अवस्थाओं की अपेक्षा से अनित्य है। इसी प्रकार आत्मा भी नित्यानित्यात्मक है । यदि आत्मा को सर्वथा नित्य माना जाय, वह सदा एकरस रहे, उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन न माना जाय तो पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष, शुभाशुभ कर्मों की फल प्राप्ति आदि सब निरर्थक हो जाएँगे। ये शिक्षालय, ये देवालय आदि आत्मा पर कोई भी शिक्षा या पवित्रता का संस्कार नहीं डाल सकेंगे। एक आदमी की गाली से दूसरे का मुँह लाल हो जाता है, उसे क्रोध आ जाता है, साधु की संगति से शान्ति - लाभ होता है इत्यादि सभी परिवर्तन असम्भव हो जाएँगे। नर से नारायण बनने की बात कल्पना मात्र ही रह जाएगी और यदि आत्मा को सर्वथा अनित्य या परिवर्तनशील ही माना जाय अर्थात् जो प्रथम क्षण में है वह द्वितीयादि क्षणों में नहीं रहता, सर्वथा क्षणिक है, इस प्रकार आत्मा का स्वरूप माना जाय तो जगत् का लेन-देन, गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र आदि का प्रसिद्ध व्यवहार ही नहीं बन सकेगा। सब यही कहेंगे, किसको दिया ? किसने दिया ? जिसको दिया वह तो गया, जिसने दिया वह भी नहीं है, कहने वाला भी नया ही होगा; क्योंकि आत्मा को सर्वथा क्षणिक और सदा परिवर्तनशील जो माना गया है। अतः तर्क और अनुभव हमें यही बताता है कि अवस्थाओं में परिवर्तन होने पर भी उन सभी अवस्थाओं का सूत्रधार एक द्रव्य स्थिर अवश्य है, जिसमें ये सभी रंग-बिरंगे परिवर्तन होते रहते हैं। 'मैं वही हूँ', 'मैं बचपन में स्कूल में पढ़ता था' आदि ज्ञान इस बात के साक्षी हैं कि अनेक अवस्थाओं में 'मैं' का वाच्य एक धारा प्रवाही द्रव्य अवश्य है और वह है 'आत्मा' । इसी प्रकार अचेतन जगत् में परिवर्तन होकर भी परिर्वतन का आधार परमाणु स्थिर बना रहता है। वस्तुतः परमाणु ही एक द्रव्य है। परमाणुओं के समुदाय से बने हुए स्कन्ध कितने ही परिवर्तित हो जाएँ पर
वे
परमाणुत्व को नष्ट नहीं कर सकते। एक कपड़ा है, उसमें आग लगा दीजिए, राख हो जाएगा। राख को पानी में डाल दीजिए, घुलकर पानी बन जाएगी, पानी सूखकर भाप बन जाएगा, फिर खेत में पहुँचकर गेहूँ बन जाएगा, पर उसका एक
नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण :: 203
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