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न अवस्तु, किन्तु वस्तु का एक अंश है उसी तरह अंशी न वस्तु है न अवस्तु, वह तो केवल अंशी है, वस्तु तो अंश - अंशी के समूह का नाम है। अतः जैसे अंश को जानने वाला ज्ञान नय है वैसे ही अंशी को जानने वाला ज्ञान भी नय है । यदि ऐसा नहीं है तो जैसे अंशी को जानने वाला ज्ञान प्रमाण है वैसे ही अंश को जानने वाला ज्ञान भी प्रमाण ही कहा जाएगा। ऐसी स्थिति में नय प्रमाण से भिन्न नहीं है, किन्तु उक्त कथन समीचीन नहीं है; क्योंकि जब सम्पूर्ण धर्मों को गौण करके अंशी को ही प्रधान रूप से जानना इष्ट होता है तो उसमें द्रव्यार्थिक नय का ही मुख्यरूप से व्यापार माना गया है, प्रमाण का नहीं, किन्तु जब धर्म- धर्मी के समूह को प्रधान रूप से जानना इष्ट होता है तो उसमें प्रमाण का व्यापार होता है। तात्पर्य यह है कि अंशों को प्रधान और अंशी को गौण रूप से अथवा अंशी को प्रधान और अंशों को गौण रूप से जानने वाला ज्ञान नय है तथा अंश-अंशी दोनों को प्रधान रूप जानने वाला ज्ञान प्रमाण है। अतः नय प्रमाण से भिन्न है । 185,
धर्म-धर्मी के सूमह का नाम वस्तु है। जो ज्ञान धर्म या केवल धर्मी को ही मुख्य रूप से जानता है, वह ज्ञान नय है और जो दोनों को ही मुख्यरूप से जानता है, वह प्रमाण है। यह पहले कह आये हैं कि प्रमाण 'सकलादेशी' है, उसका विषय पूर्ण वस्तु है और नय 'विकलादेशी' है, उसका विषय या तो मुख्य रूप से मात्र धर्मी होता है या मात्र धर्म होता है। जो धर्मों को गौण करके मात्र धर्मी की मुख्यता से वस्तु को जानता है, वह द्रव्यार्थिक नय है और जो धर्मी को गौण करके मुख्यरूप से धर्म को ही जानता है, वह पर्यायार्थिक नय है तथा जो धर्म और धर्मी दोनों की मुख्यता से सम्पूर्ण वस्तु को जानता है, वह प्रमाण है । अतः नय प्रमाण से भिन्न है।
यदि न प्रमाण से भिन्न है तो वह अप्रमाण ही हुआ और अप्रमाण होने से मिथ्याज्ञान की तरह नय वस्तु को जानने का साधन कैसे हो सकता है ? किन्तु इस प्रकार की विचारधारा ठीक नहीं है; क्योंकि नयं न तो अप्रमाण है और न प्रमाण है, किन्तु ज्ञानात्मक है, अतः प्रमाण का एकदेश है। इसमें किसी प्रकार का कोई विरोध नहीं है | 186
उक्त कथन का आशय है कि यदि नय प्रमाण से भिन्न है तो वह अप्रमाण ही हुआ; क्योंकि प्रमाण से भिन्न अप्रमाण ही होता है। एक ज्ञान प्रमाण भी न हो और अप्रमाण भी न हो ऐसा तो सम्भव नहीं है, क्योंकि किसी को प्रमाण न मानने पर अप्रमाणता अनिवार्य है और अप्रमाण न मानने पर प्रमाणता अनिवार्य है, दूसरी कोई गति ही नहीं है। इसका समाधान करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते है-' प्रमाणता और अप्रमाणता के अतिरिक्त भी एक तृतीय गति है, वह है
130 :: जैनदर्शन में नयवाद
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