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जिसने सँड पकड़ी थी वह भी दर्प से गरज कर बोला-अरे मूर्यो! क्यों वृथा बकवास करते हो? हाथी तो उलटे मूसल - जैसा होता है। पूंछ पकड़ने वाले सूरदास ने सब को डाँटते हुए कहा-अरे, क्यों नाहक झूठ बोलते हो? हाथी तो मोटे रस्से जैसा होता है। दाँत टटोलने वाला छठा अन्ध पुरुष चिल्लाते हुए बोला-अरे धूर्तो ! क्यों दूसरों को गुमराह करते हो? जैसा तुम लोग कहते हो हाथी वैसा नहीं होता; वह तो कुदाल या कुश जैसा होता है।
इस प्रकार वे छहों जन्मान्ध पुरुष हाथी के स्वरूप को लेकर लगे लड़नेझगड़ने और गाली-गलौच करने। इतने में ही सौभाग्य से अचानक एक समझदार व्यक्ति, जिसे हाथी का पूर्ण ज्ञान था, वहाँ से निकला और उन छहों अन्धों के वादविवाद तथा रोषपूर्ण झगड़े को देखकर और गाली-गलौच को सुनकर वहाँ रुक गया
और उसने उनके लड़ने-झगड़ने का कारण पूछा। वे सब एक दूसरे को झूठा कह कर केवल अपनी-अपनी ही हाँकने लगे। उनकी इस प्रकार की सर्वथा एकान्त और हठाग्रह पूर्ण मान्यताओं को सुनकर उस ज्ञानी पुरुष को उनकी अज्ञानता पर खेद हुआ कि किस प्रकार व्यक्ति अपनी ही बात को पूर्ण सत्य मानकर दूसरे की विचारधारा की उपेक्षा करता है। वास्तव में यह एकान्तदृष्टि ही पारस्परिक संघर्ष, विवाद और वैमनस्य की जड़ है। उस ज्ञानी पुरुष ने उनको समझाया कि तुम सभी भ्रान्ति में हो। तुम में से किसी ने भी पूर्ण हाथी को नहीं जाना है। उसके एकएक अंग को टटोलकर अपनी-अपनी समझ की पूर्णता का दावा कर रहे हो और उसके एक-एक अंग को ही पूर्ण हाथी समझकर आपस में लड़ रहे हो। जरा, समझने की कोशिश करो। एक दूसरे को झूठा मत कहो, बल्कि सबके दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करो। पैर की दृष्टि से हाथी खम्भे जैसा, पेट की दृष्टि से कुठीले जैसा, कान की दृष्टि से सूप जैसा, सूंड की दृष्टि से मूसल जैसा, पूँछ की दृष्टि से रस्से जैसा और दाँत की दृष्टि से हाथी कुदाल जैसा होता है। हाथी का स्वरूप केवल पैर, पेट, कान आदि रूप ही नहीं है, किन्तु पैर, पेट आदि समस्त अवयवों को मिला देने पर ही हाथी का पूर्ण रूप बनता है। इस प्रकार ये बात सब की समझ में आ गयी और अपनी सर्वथा एकान्त हठाग्रहपूर्ण दृष्टि अनेकान्त के रूप में परिवर्तित हो गयी। उनको अपनी एकान्त दृष्टि पर पश्चाताप हुआ और हाथी के विषय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर वे सभी प्रसन्न हुए।
इसी प्रकार संसार के जितने भी एकान्तवादी दुराग्रहशील दर्शन और सम्प्रदाय हैं वे वस्तु के एक-एक अंश अर्थात् एक-एक धर्म को ही पूर्ण वस्तु समझते हैं और दूसरे दर्शनों या सम्प्रदायों में मतभेद रखते हैं। पर वास्तव में वह वस्तु नहीं, वस्तु का एक अंश मात्र हैं। यथार्थ में अनेकान्त वस्तु के पूर्ण स्वरूप को ग्रहण करने वाला
154 :: जैनदर्शन में नयवाद
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