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विषयक 'सात भंग बनते हैं और जब वस्तु के नित्यत्व धर्म की विवक्षा करते हैं तो नित्यत्व धर्म को लेकर सात भंग' बन जाते हैं। जैसे-(1) स्यात् नित्य एव घटः। (2) 'स्यात् अनित्य एव घट: अर्थात् (1) कथचित् घड़ा नित्य ही है। (2) कथंचित् घड़ा अनित्य ही है। द्रव्य-दृष्टि से घड़ा नित्य है और पर्याय-दृष्टि से अनित्य है। इसी प्रकार अन्य अवशिष्ट भंग भी बनाये जा सकते हैं। इस तरह वस्तु के प्रत्येक धर्म की विवक्षा से वस्तु में सात-सात भंग सम्भव हैं। वस्तु में अनन्त धर्म हैं। अत: ऐसी-ऐसी अनन्त सप्तभंगियाँ उसमें बन सकती हैं। इसलिए वस्तु को सप्तधर्मा न कहकर अनन्त धर्मा या अनेकान्तात्मक कहा गया है।
वस्तुतः शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के भावों पर आधारित होती है। अत: प्रत्येक वस्तु में दोनों धर्मों के रहने पर भी वक्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से उन धर्मों का उल्लेख करते हैं। मान लीजिए। दो व्यक्ति हैं-एक नगर के एक भाग से आता है और दूसरा, दूसरे भाग से। दोनों किसी एक दुकान पर पहुँचते हैं और अनेक वस्तुओं को देखते हैं, उनमें से अपनी-अपनी रुचि के अनुसार पहला व्यक्ति किसी वस्तु को अच्छी बतलाता है और दूसरा उसी वस्तु को बुरी बतलाता है। दोनों में विवाद खड़ा हो जाता है। इतने में ही एक तीसरा व्यक्ति आता है, जो दोनों को झगड़ते हुए देखता है और पूछता है-भाई तुम दोनों में आपस में झगड़ा क्यों हो रहा है? दोनों ही अपनी-अपनी बात कहते हैं। वह समझदार था, दोनों की दृष्टियों को समझकर बोला-देखो भाई। विवादास्पद वस्तु अच्छी भी है और बुरी भी है। जो वस्तु तुम्हारी दृष्टि में अच्छी है, वही इनकी दृष्टि में बुरी हो सकती है और इनकी दृष्टि में जो अच्छी है वही तुम्हारी दृष्टि में बुरी हो सकती है। यह तो अपनी-अपनी दृष्टि है, अपना-अपना विचार है। इसमें लडने-झगड़ने जैसी तो कोई बात ही नहीं है। इस प्रकार यहाँ तीनों व्यक्ति अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार तीन तरह का वचन प्रयोग करते हैं-पहला विधिरूप, दूसरा निषेध रूप और तीसरा विधि-निषेधरूप। जब हम किसी वस्तु को अच्छी कहते हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि वह वस्तु हमारी दृष्टि से सुन्दर है किन्तु वही वस्तु दूसरे
की दृष्टि से असुन्दर या बुरी भी हो सकती है। . वस्तु के उक्त दोनों धर्मों को यदि कोई एक साथ कहने का प्रयत्न करे तो वह कभी भी नहीं कह सकता; क्योंकि एक शब्द एक समय में विधि और निषेध
इन दोनों धर्मों में से किसी एक का ही कथन कर सकता है। ऐसी अवस्था में वस्तु .. अवाच्य (अवक्तव्य) कही जाती है अर्थात् उसे शब्द के द्वारा नहीं कहा जा सकता है। उक्त चार वचन व्यवहारों (विधि, निषेध, विधि-निषेध और अवक्तव्य) को हम दार्शनिक भाषा में स्यात् सत्, स्यात् असत्, स्यात् सद्-असत् और स्यात्
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 173
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