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से सम्बोधित किया जाता है, उसी प्रकार अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु में अनेक धर्मों की सत्ता प्रमाणित होती है । स्याद्वाद, नयवाद और अपेक्षावाद और कथंचित्वाद ये अनेकान्तवाद के ही पर्यायवाची शब्द हैं।
वास्तव में विचार के क्षेत्र में अनेकान्त इतना व्यापक है कि विश्व के समग्र दर्शनों का इसमें समावेश हो जाता है; क्योंकि 'जितने वचन - व्यवहार हैं उतने ही नय हैं '247 | वस्तुतः सम्यक् नयों का समूह ही अनेकान्त है। नय को एकान्त भी कहते हैं, अत: एकान्तों के समूह का नाम भी अनेकान्त है; क्योंकि एकान्त के बिना अनेकान्त सम्भव नहीं है । यदि एकान्त न हो तो जैसे एक के बिना अनेक नहीं, • वैसे ही एकान्त के बिना अनेकान्त नहीं । अतः जब सभी अनेकान्त रूप हैं तो अनेकान्त एकान्त रूप कैसे हो सकता है ? अनेकान्त में अनेकान्त को घटित करते हुए आचार्य समन्तभद्र248 ने कहा है – 'प्रमाण और नय के द्वारा सिद्ध होने वाला अनेकान्त भी अनेकान्त रूप है। प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त है और विवक्षित नय की अपेक्षा एकान्त है।
अनेकान्त दो प्रकार का है।249 सम्यग् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । एकान्त भी दो प्रकार का है - सम्यग् एकान्त और मिथ्या एकान्त । एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध प्रतिपक्षी अनेक धर्मों का निरूपण करने वाला. सम्यक् अनेकान्त है तथा तत् और अतत् स्वभाववाली वस्तु से शून्य काल्पनिक अनेक धर्मात्मक जो कोरा वाग्जाल है, वह मिथ्या अनेकान्त है । प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एकदेश को हेतु- विशेष की सामर्थ्य की अपेक्षा से ग्रहण करने वाला सम्यग् एकान्त है और एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य सब धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकान्त है । सम्यग् अनेकान्त को प्रमाण कहते हैं और सम्यग् एकान्त को नय । प्रमाण की अपेक्षा से अनेकान्त होता है; क्योंकि वह अनेक निश्चयों का आधार है और नय की अपेक्षा से एकान्त होता है; क्योंकि एक ही धर्म का निश्चय करने की ओर उसका झुकाव रहता है। यदि अनेकान्त को अनेकान्त रूप ही माना जाय और एकान्त को सर्वथा न माना जाय तो एकान्त का अभाव होने से एकान्तों के समूह - रूप अनेकान्त का भी अभाव हो जाएगा। जैसे - शाखा, पत्र, पुष्प आदि के अभाव में वृक्ष का अभाव अनिवार्य है तथा यदि एकान्त को ही माना जाय तो अविनाभावी इतर सब धर्मों का निरूपण करने के कारण प्रकृत धर्म का भी लोप हो जाने से सर्वलोप का प्रसंग आता है।
यथार्थतः अनेकान्त वह विचारधारा है जिसमें किसी एक 'अन्त' का, धर्म विशेष का अथवा एक पक्ष विशेष का आग्रह न हो । सामान्य भाषा में विचारों के अनाग्रह को ही वास्तव में अनेकान्त कहा जाता है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
152 :: जैनदर्शन में नयवाद
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