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दृष्टि ही एक मात्र साधन है; क्योंकि 'स्यात्' शब्द सत्य का प्रतीक है, इसलिए स्याद्वाद पद्धति को अपनाये बिना विराट् सत्य का साक्षात्कार होना सम्भव नहीं। जो विचारक वस्तु के अनेक धर्मों को अपनी दृष्टि से ओझल करके किसी एक ही धर्म को पकड़ कर अटक जाता है वह सत्य को नहीं पा सकता।
___ अनेकान्त का प्रतिपादक स्याद्वाद सिद्धान्त विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में नित्यत्व, अनित्यत्व आदि परस्पर-विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का अविरोध प्रतिपादन करके उनका सुन्दर एवं बुद्धि संगत समन्वय प्रस्तुत करता है। यह विचारक को एक ऐसी विचारधारा की ओर ले जाता है, जहाँ सभी प्रकार के विरोधों का परिहार हो जाता है। यह समस्त दार्शनिक एवं लौकिक समस्याओं, उलझनों और भ्रान्तियों के निराकरण का समाधान प्रस्तुत करता है। एक अपेक्षा विशेष से पिता को पुत्र, पुत्र को भी पिता, छोटे को भी बड़ा और बड़े को भी छोटा यदि कहा जा सकता है तो इसका आश्रय लेकर ही युगप्रधान आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि दार्शनिकों ने अनेकान्त और स्याद्वाद का खूब विश्लेषण किया और इनके समर्थन द्वारा ही सत्-असत् आदि विभिन्न धर्मों में सामंजस्य स्थापित किया। इसी प्रकार इनके उत्तरवर्ती आचार्य अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्द आदि तार्किकों ने भी अनेकान्त की परिपुष्टि करते हुए उसके विविध प्रकार से उपयोग या निर्वाह के लिए स्याद्वाद, नयवाद या सापेक्षवाद, सप्तभंगीवाद आदि का निरूपण किया और इनके द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का विवेचन किया।
एक निश्चित अपेक्षा से अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन करना स्याद्वाद है। स्याद्वाद के फलितार्थ हैं नयवाद और सप्तभंगीवाद। अनन्त धर्मात्मक वस्तु के विभिन्न धर्मों का समन्वय करने के लिए उन धर्मों में से किसी एक धर्म को मुख्य कर और शेष धर्मों को गौण करके उस एक धर्म का कथन करना नयवाद है और एक धर्म के विषय में सम्बन्धित विविध मन्तव्यों के समन्वय के लिए जो विवेचन किया जाता है वह सप्तभंगीवाद है। इस प्रकार ये सभी सिद्धान्त दार्शनिक, सैद्धान्तिक तथा दैनिक जीवन-व्यवहार में होने वाले मतवादों या मत-विभिन्नताओं में सामंजस्य स्थापित करते हैं। वक्ता के जो अभिप्राय या वचन हैं वे सब जैनदर्शन की भाषा में नय कहलाते हैं। अतः जिस समय वक्ता वस्तु के जिस धर्म का कथन करना चाहता है, उस समय वह धर्म मुख्य हो जाता है और शेष धर्म अविवक्षित या गौण हो जाते हैं। जैसे, वक्ता यदि द्रव्यार्थिक नय या द्रव्यदृष्टि से वस्तु का प्रतिपादन करता है तो नित्यत्व धर्म विवक्षित या मुख्य रहता है और उसी समय अनित्यत्व धर्म अविवक्षित या गौण रहता है तथा यदि पर्यायार्थिक नय या पर्यायदृष्टि
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 167
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