Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 170
________________ से प्रतिपादन करता है तो वस्तु का अनित्यत्व धर्म विवक्षित या मुख्य होता है और नित्यत्व धर्म अविवक्षित अर्थात् गौण हो जाता है। इस विषय को दधिमन्थन करने वाली ग्वालिन के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया गया है। जैसे, दधिमन्थन करने वाली ग्वालिन मथानी की रस्सी के दोनों छोरों में से जब एक छोर को खींचती है तो दूसरे छोर को उसी समय ढीला कर देती है और जब दूसरे छोर को खींचती है तो उसी समय पहले छोर को ढीला कर देती है, किन्तु एक छोर के खींचने पर दूसरे को सर्वथा छोड़ नहीं देती है । इस प्रकार वह रस्सी के आकर्षण और शिथिलीकरण के द्वारा दधिमन्थन कर इष्टतत्त्व (मक्खन) की प्राप्ति कर लेती है । उसी प्रकार स्याद्वाद - नीति भी वस्तु के एक विवक्षित धर्म की मुख्तया और उसी समय शेष अविवक्षित धर्मों की गौणता के कथन द्वारा अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व की सिद्धि करती है। 275 इस प्रकार स्याद्वाद के इस विवक्षित - अविवक्षित अथवा मुख्यतागौणता के सिद्धान्त द्वारा अनेक धर्मात्मक वस्तु का यथार्थ कथन किया जाता है। जैनदर्शन की यह वस्तु - विवेचक प्रक्रिया अपने ही ढंग की है। इसके द्वारा एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों की स्थिति में कोई बाधा नहीं आती और वस्तु का यथार्थ स्वरूप निर्बाधरूप से सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार स्याद्वाद के सापेक्षता या समन्वयवादी सिद्धान्त द्वारा जहाँ दार्शनिक क्षेत्र की समस्याएँ या विवाद सुलझते हैं वहाँ लौकिक जीवन क्षेत्र की समस्याएँ, पारस्परिक मतभेद तथा बड़े-बड़े संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं । उक्त कथन का निष्कर्ष यही है कि जैनदर्शन अपने मूल सिद्धान्त अनेकान्तवाद और उसके प्रतिपादक स्याद्वाद, नयवाद या सापेक्षवाद आदि के द्वारा समस्त दर्शनों और जीवन व्यवहारों का समन्वय करता है। जिस प्रकार परस्पर में विवाद और संघर्ष करने वाले लोग किसी निष्पक्ष व्यक्ति के समझाये जाने पर वे अपनी त्रुटियों पर पश्चाताप कर आपस में गले मिल जाते हैं । अथवा जिस प्रकार भिन्न-भिन्न बिखरे हुए मणियों को एक धागे में पिरोये जाने पर एक सुन्दर रत्नों का हार बन जाता है और वह गले की शोभा बढ़ाता है, ठीक उसी प्रकार परस्परनिरपेक्ष दर्शनों के सापेक्ष होकर जैनदर्शन में समन्वित हो जाने पर वे कल्याणकारी बन जाते हैं। अनेकान्तवादी जैनदर्शन का मुख्य ध्येय यही है कि विश्व के समस्त दर्शनों में सामंजस्य स्थापित हो । जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्रों पर समभाव रखता है। उसी प्रकार स्यादवादी जैनदर्शन भी सभी दर्शनों पर समन्वय दृष्टि रखता है। जैनदर्शन विश्व को यह बतलाता है कि जगत् के सभी धर्म और दर्शन किसीन - किसी अपेक्षा से सत्य के अंश है। हमें उनमें सत्य के दर्शन हो सकते हैं । अतः 168 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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